तुम यकीन करोगी / नंद भारद्वाज
तुम यकीन करोगी -
तुम्हारे साथ एक उम्र जी लेने की
कितनी अनमोल सौगातें रही हैं मेरे पास:
सुनहरी रेत के धोरों पर उगती भोर
लहलहाती फसलों पर रिमझिम बरसता मेह
कुछ नितान्त अलग-सी दीखती हरियाली के बिम्ब
बरसाती नदियों की उद्दाम लहरें
और दरख्तों पर खिलते इतने इतने फूल...
कोसों पसरे रेतीले टीबों में
खोए गांवों की उदास शामें -
सूनी हवेलियों के
बहुत अकेले खण्डहर,
सूखे कुए के खम्भों पर
प्यासे पंछियों का मौन
अकथ संवाद,
कुलधरा-सी सूनी निर्जन बस्तियाँ
मन की उदासी को गहराते
कुछ ऐसे ही दुर्लभ दरसाव
हर पल धड़कती फकत् एक अभिलाषा -
जीवन के फिर किसी मोड़ पर
तुम्हारी आंख और आगोश में
अपने को विस्मृत कर देने की चाह
और यही कुछ सोचते सहेजते
थके पांव लौट आता हूँ
बीते बरसों की धुंधली स्मृतियों के बीच
गो कि कोई शिकायत नहीं है
अपने आप से -
फकत् कुछ उदासियाँ हैं
अकेलेपन की !