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तुम सबको मैं जानता हूं / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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तुम सबको मैं जानता हूं, फिर भी
हो तो तुम दूर ही के जन।
तुम्हारा आवेष्टन, चलना फिरना,
चारों और लहरों का उतरना चढ़ना,
सब कुछ परिचित जगत का है,
फिर भी है दुविधा उसके आमन्त्रण में
सबों से मैं दूर हूं,
तुम्हारी नाड़ी की जो भाषा है
वह है तो मेरे अपने प्राणों की ही, फिर भी-
विषण्ण विस्मय होता है
जब देखता हूं, स्पर्श उसका
ससंकोच परिचय ले आता है
प्रवासी का पाण्डुवर्ण शीर्ण आत्मीय सा।
मैं कुछ देना चाहता हूं,
नहीं तो जीवन से जीवन का
होगा मेल कैसे ?
आते नहीं बनता मुझसे
निश्चित पदक्षेप में,
डरता हूं,
रीता हो पात्र शायद,
शायद उसने खो दिया हो रस स्वाद
अपने पूर्व परिचय का,
शायद आदान प्रदान में
न रहे सम्मान कोई।
इसी से आशंका की इस दूरी से
निष्ठुर इस निःसंगता में
तुम सबको बुलाकर कहता हूं-
‘जिस जीवन लक्ष्मी ने मुझे सजाया था
नये-नये वेश में,
उसके साथ विच्छेद के दिन आज
बुझाकर उत्सव दीप सब
दरिद्रता की लांछना
होने न देगी कभी कोई असम्मान,
अलंकार खोल लेगी,
एक-एक करके सब
वर्ण सज्जा-हीन उत्तरीय से ढक देगी,
ललाट पर अंकित कर देगी
शुभ्र तिलक की रेखा एक;
तुम भी सब शामिल होना
जीवन का परिपूर्ण घट साथ ले
उस अन्तिम अनुष्ठान में,
सम्भव है सुनाई दे
दूर से दूर कहीं
दिगन्त के उस पार शुभ शंखध्वनि।’

‘उदयन’
प्रभात: 9 मार्च, 1941