तुम ही बन जाते अगर किनारा / कमलकांत सक्सेना
प्रिय काश दिया होता तुमने,
बस थोड़ा-सा मुझे सहारा,
यह बन जाती कुछ और ज़िन्दगी,
तुम ही बन जाते अगर किनारा!
तुम नारी थीं अबला, बन्धन में बँध जाने वाली नारी
इतनी जल्दी विवश बनोगी, मुझको ये आभास नहीं था
तुम रो भी सकती हो, घुट-घुट कर मर जाने वाली नारी
फिर भी अपनी जिह्वा मौन रखोगी, यह विश्वास नहीं था
प्रिय खोल दिया होता तुमने,
निज दर्दों का रुंधा पिटारा।
यह बन जाती कुछ और ज़िन्दगी,
तुम ही बन जाते अगर किनारा।
मैं ही लड़ा जमाने से, तुमसे न दी गई खड्ग मात्र भी
जिस दिन कि मिलकर इस बैरी जग ने मुझको था ललकारा,
हार गया, मन, मार गया पर तुम रहीं देखती खड़ी हुई
क्यों ना तुमने साहस कर इन भुजदंडों को आन संवारा?
प्रिय आज दिया होता तुमने,
यह बन जाती कुछ और ज़िन्दगी,
तुम ही बन जाते अगर किनारा।
नारी हो, कोमल मन हो, मैं इससे कब इंकार कर रहा
किंतु भ्रमित हो जाना, डिग जाना अपने पथ से भला नहीं,
पल भर में, विश्वास डिगाना यद्यपि नारी का काम रहा
लेकिन, प्राण, प्रणय के पथ में पीछे रह जाना भला नहीं,
प्रिय त्याग दिया होता तुमने,
दुर्बलता का क्षीण सहारा!
यह बन जाती कुछ और ज़िन्दगी,
तुम ही बन जाते अगर किनारा!
ममता-माया में रमने वाली ओ भोली भाली नारी,
जीवन का संग्राम बड़े ही दुष्करतर पथ पर होता है!
बगिया में क्या शेष रहेगा, अगर सूख जाएगी क्यारी?
खिला फूल मुस्काता है, तो मुरझाने वाला रोता है!
प्रिय रोक दिया होता तुमने,
लावारिस-सा बहा शिकारा!
यह बन जाती कुछ और जिन्दगी,
तुम ही बन जाते अगर किनारा!