भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
ये सोच कर कि
अब ना देखेंगे तुम्हें
मैंने अपनी आँखें मूँद ली
पर बन्द पलकों की परतों में भी
मुझे तुम नजर आ ही गये
ये सोच कर कि
अब ना याद करेंगे तुम्हें
मैंने अपनी मंजि़ल बदल ली
पर पुरानी यादों की पगडंडियों के रास्ते
फिर से मुझे तुम याद आ ही गये
ये सोच कर कि
अब ना मिला करेंगे तुम्हें
मैंने अपनी पहचान बदल ली
पर दिल में सजी तुम्हारी तस्वीरों के जरिए
देखो, फिर से तुम मुझे मिल ही गए।