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तुम / साधना सिन्हा
Kavita Kosh से
आदत नहीं थी
संग तुम्हारे रहने की
धीरे–धीरे
घर तुम्हारा हो गया
फैलाव
जब मुझ में
सिमटने को होता है
छूट जाता है तभी
जिसको मैंने
सहेजा था, सँवारा था
मेरी जकड़ को
खींचने लगते हो तुम
क्यों ?
कहाँ से आ जाते हो ?
नाता
गहरा जाता है
नहीं फिर कुछ सूझता
सार तुम्हीं बन जाते हो ।