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तुलसी के, जायसी के, रसखान के वारिस हैं / वशिष्ठ अनूप

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तुलसी के, जायसी के, रसखान के वारिस हैं,
कविता में हम कबीर के ऐलान के वारिस हैं।

हम सीकरी के आगे माथा नहीं झुकाते,
कुम्भन की फ़कीरी के, अभिमान के वारिस हैं।

सीने में दिल हमारे आज़ाद का धड़कता,
हम वीर भगत सिंह के बलिदान के वारिस हैं।

एकलव्य का अंगूठा कुछ पूछता है हरदम,
हम तीर कमानों के संधान के वारिस हैं।

हमने समर में पीठ दिखाई नहीं कभी भी,
आल्हा के हम सहोदर, मलखान के वारिस हैं।