तुलसी सा कवि / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'
ईश! दया कर एक बार फिर
तुलसी-सा कवि भेजो!
करुणामय अपनी करुणा का
अब यह विरुद सहेजो।
जिसकी समरसता की ध्वनि
आसेतु हिमाचल छाए
बिखरी संस्कृतियॉं जन-मन की
एकतानता पाए।
भाव-भेद रस-भेद छंद की
जिसकी परम निकाई
मानव के जीवन पथ की
होए आदर्श इकाई।
जिसकी वाणी वेद वाक्य बन
जन-कंठों से गूंजे
जिसके अभिनव मृदुल स्वरों से
पाहन आज पसीजे।
जिसकी महती सौम्य चिंतना
दे जीवन की आशा।
जिसके काव्य रसामृत से फिर
जागे ज्ञान पिपासा।
जिसके सरल शुभादर्शो से
मिटे भेद की खाई
जिसकी निर्मल धारा से फिर
धुले कलुष की काई।
भक्ति विमल आवदानों से जो
देव मनुज को कर दे
सुधामयी सचमुच हो वसुधा
वह वाणी का वर दे।
प्रभो! देख लो आज विश्व में
अनगिन सीता रोती
दुराचार-रावण से शुचिता
नित्य तिरस्कृत होती।
नहीं दिखता नरवर कोई
असुर आज संहारे
विकल विलखती वैदेही की
नैया पार उतारे।
देव पुनः वैसा कवि भेजो
जो राम हमारा दे
दुष्ट दलन दलितों का त्राता
भगवान हमारा दे।