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तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ / 'फना' निज़ामी कानपुरी

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तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ
अब के किसी बे-नाम से मौसम की तरह आ

हर मरतबा आता है मह-ए-नौ की तरह तू
इस बार ज़रा मेरी शब-ए-ग़म की तरह आ

हल करने हैं मुझ को कई पेचीदा मसाइल
ऐ जान-ए-वफ़ा गेसू-ए-पुर-ख़म की तरह आ

ज़ख़्मों को गवारा नहीं यक रंगी-ए-हालात
नश्तर की तरह आ कभी मरहम की तरह आ

नज़दीकी ओ दूरी कशाकश को मिटा दे
इस जंग में तू सुलह के परचम की तरह आ

माना के मेरा घर तेरी जन्नत तो नहीं है
दुनिया में मेरी लग्जिश-ए-आदम की तरह आ

तू कुछ तो मेरे ज़ब्त-ए-मोहब्बत का सिला दे
हँगामा-ए-‘फना’ दीदा-ए-पुर-नाम की तरह आ