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तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

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तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है
मैं हूँ और रंज है और गोशा-ए-तन्हाई है

सच कहा है के ब-उम्मीद है दुनिया क़ाएम
दिल-ए-हसरत-ज़दा भी तेरा तमन्नाई है

दिल की फ़रीयाद जो सुनता हूँ तो रो देता हूँ
चोट कमबख़्त ने कुछ ऐसी ही तो खाई है

बे-नियाज़ी की अदाएँ वो दिखाते हैं बहुत
ख़ू-ए-तस्लीम मेरी उन को पसंद आई है

ज़ुल्फ़ बरहम मिज़ा बर्गश्ता जबीं चीन-आलूद
मेरी बिगड़ी हुई तक़दीर की बन आई है

अदब आमोज़ बला का है तग़ाफ़ुल उन का
शौक़-ए-पुर-हौसला ने ख़ूब सज़ा पाई है

कहे देता हूँ किसी और की जानिब तू न देख
क्या ये कुछ कम है के ‘वहशत’ तेरा सौदाई है