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तृतीय अंक / भाग 5 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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पुरुरवा
हाय, तृषा फिर वही तरंगॉ में गाहन करने की!
वही लोभ चेतना-सिन्धु के अपर पार जाने का
झम्प मार तन की प्रतप्त, उफनाती हुई लहर में?
ठहर सकेगा कभी नहीं क्या प्रणय शून्य अम्बर पर?
विविध सुरॉ में छेड़ तुम्हारी तंत्री के तारॉ को,
बिठा-बिठा कर विविध भांति रंगॉ में, रेखाऑ में,
कभी उष्ण उर-कम्प, कभी मानस के शीत मुकुर में,
बहुत पढ़ा मैने अनेक लोकॉ में तुम्हें जगाकर.
पर, इन सब से खुलीं पूर्ण तुम? या जो देख रहा हूँ,
मायाविनि! वह बन्द मुकुल है, महासिन्धु का तट है?
कहाँ उच्च वह शिखर, काल का जिस पर अभी विलय था?
और कहाँ यह तृषा ग्राम्य नीचे आकर बहने की
पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में?
भ्रांत स्वयं या जान-बूझकर मुझ्को भ्रमा रही हो?

उर्वशी
भ्रांति नहीं, अनुभूति; जिसे ईश्वर हम सब कहते हैं,
शत्रु प्रकृति का नहीं, न उसका प्रतियोगी, प्रतिबल है.
किसने कहा तुम्हें, परमेश्वर और प्रकृति, ये दोनॉ
साथ नहीं रहते; जिसको भी ईश्वर तक जाना है,
उसे तोड़ लेने होंगे सारे सम्बन्ध प्रकृति से;
और प्रकृति के रस में जिसका अंतर रमा हुआ है,
उसे और जो मिले, किंतु, परमेश्वर नहीं मिलेगा?
किसने कहा तुम्हें, जो नारी नर को जान चुकी है,
उसके लिए अलभ्य ज्ञान हो गया परम सत्ता का;
और पुरुष जो आलिंगन में बाँध चुका रमणी को,
देश-काल को भेद गगन में उठने योग्य नहीं है?
ईश्वरीय जग भिन्न नहीं है इस गोचर जगती से;
इसी अपावन में अदृश्य वह पावन सना हुआ है

माया कह क्यॉ मृषा मेटते हो अस्तित्व प्रकृति का?
ये नदियाँ, ये फूल, वृक्ष ये और स्वयं हम-तुम भी
शून्य मंच पर सत्वशील, जीवित, साकार खड़े हैं.
और यहाँ जो कुछ करते हैं उसकी गंध हवा में
उड़ते-उड़ते दूर जन्म-जन्मांतर तक जाती है.
शिखरॉ में जो मौन, वही झरनॉ में गरज रहा है,
ऊपर जिसकी ज्योति, छिपा है वही गर्त्त के तम में.
तब किस भय से भाग रहे नीचे की तिमिरपुरी से?
शिखरॉ पर का कौन लोभ ऊपर को खींच रहा है?
अन्धा हो जाता मनुष्य रवि की भी प्रखर प्रभा से
और किसी को अन्धियाले में भी सब कुछ दिखता है.
मुक्ति खोजते हो? पर,यह तो कहो कि किस बंधन से?
ये प्रसून, यह पवन बन्ध है? या मैं बाँध रही हूँ?
अच्छा, खुल जाओ प्रसून से, पवन और मुझसे भी;
अब बोलो, मन पर जो बाकी कोई बन्ध नहीं है?
बन्ध नियम,संयम, निग्रह, शास्त्रॉ की आज्ञाऑ का?
मोह मात्र ही नहीं सभी ऐसे विचार बन्धन हैं
जो सिखलाते हैं मनुष्य को, प्रकृति और पर्मेश्वर
दो हैं; जो भी प्रकृत हुआ, वह हुआ दूर ईश्वर से;
ईश्वर का जो हुआ, उसे फिर प्रकृति नहीं पायेगी.
प्रकृति नहीं माया, माया है नाम भ्रमित उस धी का,
बीचॉबीच सर्प-सी जिसकी जिह्वा फटी हुई है;
एक जीभ से जो कहती कुछ सुख अर्जित करने को,
और दूसरी से बाकी का वर्णन सिखलाती है

मन की कृति यह द्वैत, प्रकृति में, सचमुच द्वैत नहीं है.
जब तक प्रकृति विभक्त पड़ी है श्वेत-श्याम खन्डॉ में
विश्व तभी तक माया का मिथ्या प्रवाह लगता है
किंतु,शुभाशुभ भावॉ से मन के तटस्थ होते ही,
न तो दीखता भेद, न कोई शंका ही रहती है.
राग-विराग दुष्ट दोनॉ, दोनॉ निसर्ग-द्रोही हैं.
एक चेतना को अजुष्ट संकोचन सिखलाता है;
और दूसरा प्रिय, अभीष्ट सुख की अभिप्रेत दिशा में
कहता है बल-सहित भावना को प्रसरित होने को.
दोनॉ विषम शांति-समता के दोनॉ ही बाधक हैं;
दोनॉ से निश्चिंत चेतना को अभंग बहने दो.
करने दो सब कृत्य उसे निर्लिप्त सभी से होकर,
लोभ, भीति, संघर्ष और यम, नियम, सयंमॉ से भी.

हम इच्छुक अकलुष प्रमोद के, पर, वह प्रमुद निरामय
विधि-निषेध-मय संघर्षॉ, यत्नॉ से साध्य नहीं है.
आता है वह अनायास, जैसे फूटा करती हैं
डाली से टहनियाँ और पत्तियाँ स्वत: टहनी से,
या रहस्य-चिंतक के मन में स्वयं कौंध जाती है
जैसे किरण अद्र्श्य लोक की, भेद अगम सत्ता का.

यह अकाम आनन्द भाग संतुष्ट-शांत उस जन का,
जिसके सम्मुख फलासक्तिमय कोई ध्येय नहीं है,
जो अविरत तन्मय निसर्ग से, एकाकार प्रकृति से,
बहता रहता मुदित, पूर्ण, निष्काम कर्म-धारा में,
संघर्षॉ में निरत, विरत, पर, उनके परिणामॉ से;
सदा मानते हुए, यहाँ जो कुछ है, मात्र क्रिया है;
हम निसर्ग के स्वयं कर्म हैं, कर्म स्वभाव हमारा,
कर्म स्वयं आनन्द, कर्म ही फल समस्त कर्मॉ का.
जब हम कुछ भी नहीं खोजते निज से बाहर जाकर,
तब हम कमी नहीं, कर्म के रूप स्वयं होते हैं
करते हुए व्यक्त आंसू अथवा उल्लास प्रकृति का.
यह अकाम आनन्द भाग उनका, जो नहीं सुखॉ को
आमंत्रण भेजते, न जगकर पथ जोहा करते हैं;
न तो बुद्धि जिनकी चिंताकुल यह सोचा करती है,
कैसे, क्या कुछ करें कि हो सुख पर अधिकार हमारा;
और न तो चेतना आकुलित इस भय से रहती है,
जानें, कौन दुख आ जाए कब, किस वातायन से;
विधि-निषेध से मुक्त, न तो पीड़ित सचेष्ट वर्जन से,
न तो प्राण को बल समेत, बरबस उस ओर लगाए
जिस दिशि से जीवन में सुख-धारा फूटा करती है.
जब इन्द्रियाँ और मन ऐसी सहज, शांत मुद्रा में,
वातायन खोले, चिंता से रहित पड़े होते हैं,
तभी किरन निष्कलुष मोद की स्वयं उतर आती है
रवि की किरणॉ के समान, अम्बर से, खुले भवन में.
विधि-निषेध हैं जहाँ, वहाम पर कर्म अकाम नहीं है;
विधि-निषेध कुछ नहीं, नियम हैं वे अर्जन-वर्जन के.
और जहाँ अर्जन-वर्जन का गणित चला करता है,
कह सकते हो सजग-प्रहरियॉ की उस बड़ी सभा में,
एक जीव भी है, जिसके कर्मॉ का ध्येय नहीं है?
फलासक्ति से मुक्त क्रिया मे6 जो उस भाँति निरत है,
जैसे बहता है समीर सर्वथा मुक्त ध्येयॉ से,
अथवा जैसे निरुद्देश्य ये फूल खिला करते हैं?
हो कोई तो कहो, उसे फल का यदि लोभ नहीं है,
तो फिर चाबुक मार स्वयं को वह क्यॉ हाम्क रहा है?
समर प्रकृति से रोप, इन्द्रियॉ पर तलवार उठाये
चुका रहा है किस सुख का वह मोल देह-दंडन से?
और कौन सुख है जिसके लुट जाने की शंका से
सारी रात नीन्द से लड़ वह आकुल जाग रहा है?
और सुनोगे एक भेद? ये प्रहरी जिन घेरॉ पर
रात-रात भर धनु का गुण ताने घूमा करते हैं,
उन घेरॉ में रक्षणीय कोई भी सार नहीं है.
कुछ भूखी रिक्तता चेतना की, कुछ फेन हवा के,
कुछ थोड़ी यह तृषा कि ऐसी कोई युक्ति निकालें,
जिससे मृत्यु-करॉ में भी पड़ने पर नहीं मरें हम;
किंतु, अधिक यह भाव, वैर है प्र्कृति और ईश्वर में,
अत: सिद्धि के लिये, प्रकृति से हमें दूर होना है.
मूढ़ मनुज! यह भी न जानता, तू ही स्वयं प्रकृति है?
फिर अपने से आप भागकर कहाँ त्राण पाएगा?
सब है शून्य कहीं कोई निश्चित आकार नहीं है,
क्षण-क्षण सब कुछ बदल रहा है परिवर्तन के क्रम में
धूमयोनि ही नहीं, ठोस यह पर्वत भी छाया है,
यह भी कभी शून्य अम्बर था और अचेत अभी भी,
नए-नए आकारॉ में क्षण-क्षण यह समा रहा है;
स्यात् कभी मिल ही जाए, क्या पता, अनंत गगन में.
यह परिवर्तन ही विनाश है? तो फिर नश्वरता से
भिन्न मुक्ति कुछ नहीं. किंतु, परिवर्तन नाश नहीं है.
परिवर्तन-प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्राण-धारा है.

मुक्त वही, जो सहज भावना से इसमें बहते हैं,
विधि-निषेध से परे, छूटकर सभी कामनाओ से,
किसी ध्येय के लिए नहीं केवल बहते रहने को;
क्यॉकि और कुछ भी करना सम्भव या योग्य नही है.

जानें, क्यॉ तैराक चतुर तब भी प्रशांत धारा में
चला-चलाकर हाथ-पाँव विक्षोभ व्यर्थ भरते हैं!
कौन सिद्धि है जो मिलती संतरण-दक्ष साधक को,
और नहीं मिलती अकाम जल में बहने वाले को?
जिसे खिजता फिरता है तू,वह अरूप, अनिकेतन
किसी व्योम पर कहीं देह धर बैठा नहीं मिलेगा.
वह तो स्वयं रहा बह अपनी ही लीला-धारा में,
कर्दम कहीं, कहीं पंकज बन, कहीं स्वच्छ जल बनकर.
उसे देख्ना हो तो आंखॉ को पहले समझा दे,
श्वेत-श्याम एक ही रंग की युगपत संज्ञाएँ हैं
और उसे छूना हो तो कह दे अपने हाथॉ से,
भेद उठा दें शूल-फूल का, कमल और कर्दम का.
अर्थ खोजते हो जीवन का? लड़ी कार्य-कारण की
बहुत दूर तक बिछी हुई है पीछे अन्धियाले में
चलो जहाँ तक भी, अतीत-गह्वर में, चरण-चरण पर,
मात्र प्रतीक्षा-निरत प्रश्न मग में मिलते जाएंगे.
और, अंत में अनाख्येय जो आदि भित्ति आती है,
परे झांकने को भी उसमें कहीं गवाक्ष नहीं है.
वर्तमान की कुछ मत पूछो,एक बूंद वह जल है,
अभी हाथ आया, तुरंत फिर अभी बिखर जायेगा.
पढ़ा जाए क्या अर्थ काल के इस उड़ते अक्षर का?
और भविष्यत के वन में ऐसा घनघोर तिमिर है,
नहीं सूझता पंथ बुद्धि के दीपॉ की आभा में
हार मान प्रज्ञा अपना सिर थाम बैठ जाती है.
वृथा यत्न इस अतल शून्य का तलस्पर्श करने का
वृथा यत्न पढ़ने का कोई भेद उत्स पर जाकर.
कहीं न कोई द्वार न तो वातायन कहीं खुले हैं,
हम हैं जहाँ, वहाँ जाने की कोई राह नहीं है.
किंतु, अर्थ को छोड़ जभी शब्दॉ की ओर मुड़ॉगे,
अकस्मात, यह शून्य ठोस रूपॉ से भर जाएगा.
देखोगे, सुनसान नहीं यह तो पूरी बस्ती है
नक्षत्रॉ की, नील गगन की, शैलॉ, सरिताऑ की,
लता-पत्र् की, हरियाली की, ऊषा की लाली की.
सभी पूर्ण, सब सुखासीन, सब के सब लीन क्रिया में,
पूछे किससे? कौन, कहाँ से सृष्टि निकल आई है?
अच्छा है, ये पेड़, पुष्प इसके जिज्ञासु नहीं हैं,
हम हैं कौन, कहाँ से आए और कहाँ जाएंगे?
सच में, यह प्रत्यक्ष जगत कुछ उतना कठिन नहीं है,
जितना हो जाता दुरूह मन के भीतर जाने पर.
वैचारिक जितना विषण्ण रहता दुरूहताऑ से,
उतना खिन्न नहीं रहता है सहज मनुष्य प्रकृति का.
द्वन्द्व रंच भर नहीं कहीं भी प्रकृति और ईश्वर में,
द्वन्द्वॉ का आभास द्वैतमय मानस की रचना है.
यह आभास नहीं टिकता, जब मनुज जान लेता है
अप्रयास अनुभवन प्रकृति का, सहज रीति जीवन की;
क्योंकि प्रकृति औ पुरुष एक हैं, कोई भेद नहीं है.
जो भी है अव्सर निसर्ग के, ईश्वर के भी क्षण हैं
धर्म-साधना कहीं प्रकृति से भिन्न नहीं चलती है.
दृश्य, अदृश्य एक हैं दोनॉ, प्रकृति और ईश्वर में
भेद गुणॉ का नहीं, भेद है मात्र दृष्टि का, मन का

और यहाँ यह काम-धर्म ही उज्जवल उदाहरण है.
काम धर्म, काम ही पाप है, काम किसी मानव को
उच्च लोक से गिरा हीन पशु-जंतु बना देता है
और किसी मन में असीम सुषमा की तृषा जगाकर
पहुंचा देता उसे किरण-सेवित अति उच्च शिखर पर.
यह विरोध क्या है? कैसे दो फल एक ही क्रिया के
एक अपर से, इस प्रकार, प्रतिकूल हुआ करते हैं?
सोचा है, यह प्रेम कहीं क्यॉ दानव बन जाता है,
और कहीं क्यॉ जाकर मिल जाता रहस्य-चिंतन से?
काम नहीं, इस वैपरीत्य का भी मन ही कारण है.
मन जब हो आसक्त काम से लभ्य अनेक सुखॉ पर,
चिंतन में भी उन्हीं सुखॉ की स्मृति ढोये फिरता है,
विकल, व्यग्र, फिर-फिर, रस-मधु में अवगाहन करने को
स्नेहाकृष्ट नहीं, तो यत्नॉ से, छल से, बल से भी,
तभी काम से बलात्कार के पाप जन्म लेते हैं
तभी काम दुर्द्धर्ष, दानवी किल्विष बन जाता है.
काम-कृत्य वे सभी दुष्ट हैं, जिनके सम्पादन में
मन-आत्माएँ नहीं, मात्र दो वपुस् मिला करते हैं;
या तन जहाम विरुद्ध प्रकृति के विवश किया जाता है
सुख पाने को, क्षुधा नहीं केवल मन की लिप्सा से;
जहाँ नहीं मिलते नर-नारी उस सहजाकर्षण से
जैसे दो वीचियाँ अनामंत्रित आ मिल जाती हैं,
पर, सुवर्ण की लोलुपता में छिपे-छिपे तस्कर से
एक दूसरे का आकुल सन्धान किया करते हैं
तन का क्या अपराध? यंत्र वह तो सुकुमार प्रकृति का;
सीमित उसकी शक्ति और सीमित आवश्यकता है.
यह तो मन ही है, निवास जिसमें समस्त विपदॉ का;
वही व्यग्र, व्याकुल असीम अपनी काल्पनिक क्षुधा से
हाँक-हाँक तन को उस जल को मलिन बना देता है,
बिम्बित होती किरण अगोचर की जिस स्वच्छ सलिल में
जिस पवित्र जल में समाधि के सहस्रार खिलते हैं

तन का काम अमृत, लेकिन, यह मन क काम गरल है.
फलासक्ति दूषित कर देती ज्यॉ समस्त कर्मॉ को,
उसी भाँति, वह काम-कृत्य भी दूषित और मलिन है,
स्वत:स्फूर्त जो नहीं, ध्येय जिसका मानसिक क्षुधा का
स्प्रयास है शमन; जहाम पर सुख खोजा जाता है
तन की प्रकृति नहीं, मन की माया से प्रेरित होकर
जहाँ जागकर स्वयं नहीं बहती चेतना उरॉ की,
मन की लिप्सा के अधीन उसको जगना पड़ता है;
या जब रसावेश की स्थिति में, किसी भाँति, जाने को
मन शरीर के यंत्रॉ को बरबस चालित करता है.
किंतु, कभी क्या रसावेश में कोई जा सकता है,
बिना सहज एकाग्र वृत्ति के मात्र हाँक कर तन को?
माँस-पेशियाँ नहीं जानती आनन्दॉ के रस को,
उसे जानती स्नायु, भोगता उसे हमारा मन है,
इसीलिए निष्काम काम-सुख वह स्वर्गीय पुलक है,
सपने में भी नहीं स्वल्प जिस पर अधिकार किसी का.
नहीं साध्य वह तन के आस्फालन या संकोचन से;
वह तो आता अनायास, जैसे बूँदें स्वाती की
आ गिरती हैं, अकस्मात, सीपी के खुले हृदय में.
लिया-दिया वह नहीं, मात्र वह ग्रहण किया जाता है.
और पुत्र-कामना कहो तो यद्यपि वह सुखकर है,
पर, निष्काम काम का, सचमुच वह भी ध्येय नहीं है.
निरुद्देश्य, निष्काम काम-सुख की अचेत धारा में,
संतानें अज्ञात लोक से आकर खिल जाती हैं
वारि-वल्लरी में फूलॉ-सी, निराकार के गृह से
स्वयं निकल पड़ने वाली जीवन की प्रतिमाऑ-सी
प्रकृति नित्य आनन्दमयी है, जब भी भूल स्वयं को
हम निसर्ग के किसी रूप(नारी, नर या फूलॉ) से
एकतान होकर खो जाते हैं समाधि-निस्तल में
खुल जाता है कमल, धार मधु की बहने लगती है,
दैहिक जग को छोड़ कहीं हम और पहुंच जाते हैं,
मानो मायावरण एक क्षण मन से उतर गया हो.
क्या प्रतीक यह नहीं, काम-सुख गर्हित, ग्राम्य नहीं है?
वह भी ले जाता मनुष्य को ऊपर मुक्ति-दिशा में
मन के माया-मोह-बन्ध को छुड़ा सहज पद्धति से
पर, खोजें क्यॉ मुक्ति? प्रकृति के हम प्रसन्न अवयव हैं;
जब तक शेष प्रकृति, तब तक हम भी बहते जाएँगे
लीलामय की सहज, शांत, आनन्दमयी धारा में.