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तृषामृग / अमरेन्द्र
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जिन सपनों को रात-रात भर बुनते रहे जनम भर
अब आँखों में गड़ते हैं बन नागफनी के शूल
धसता जाए चन्द्र-वक्ष पर कठिन शनी के शूल
सच करने पर लगा रहा मैं, जो था एक कथा भर ।
पुरबा-पछिया के हाथों पर बना रहा था निज घर
वह भी बालू और पत्रा का बिन भविष्य को जाने
कूद पड़ा था सागर में, मुट्ठी भर मोती लाने
उपलाता ही रहा उम्र भर; काष्ठ-खण्ड जल ऊपर ।
तरी हुआ ना तैर सका मैं, व्यर्थ हुआ यह जीवन
वे कैसे थे लोग, लहर को धरे पार जा उतरे
ऐसा कभी नहीं देखा था, भ्रमर फूल को कुतरे
डरा हुआ है शेष समय, अब किसका यह आलिंगन ?
कहाँ रखूँ सपने-साधों को, भाग कहाँ मैं जाऊँ
आखिर कब तक हिमप्रदेश में गीत अनल के गाऊँ ?