तेरा ठिकाना चाहिए / राजेन्द्र जोशी
मुझे तुम्हारे घर का ठिकाना चाहिए प्रभु
मुझे न स्वर्ग चाहिए
न नरक चाहिए
न सुख चाहिए
न दुख चाहिए
केवल तुम्हारा ठिकाना चाहिए
मैं तुम से मिलने का शौक नहीं रखता
तुम से कुछ मांगना भी नहीं चाहता
मुझे तुम्हारा भक्त भी नहीं बनना प्रभु !
मुझे पता हैं
तुम्हारे यहां भीड़ रहती हैं
लम्बी फेहरिस्त हैं
बड़े - बड़े लोग आते हैं
तुम्हे रिझाते है
तुम्हें फुर्सत नहीं हैं प्रभु !
तुम्हारा परिवार भी बढ़ता जाता है
तुम सबको कब संभालतें हो प्रभु
तुम्हारी दिनचर्या क्या हैं ?
पर तुम कहां मिलते हो प्रभु !
तुम्हारा एक आशियाना तो हैं नहीं
तुम भी तो वायुयान में ही चलते हो
जहां मर्जी रहते हो
सबको राजी रखते हो प्रभु !
तुम्हारा साम्राज्य भी तो बड़ा हैं
मंत्रीमण्डल भी तुम्हारा है
सबको स्वतंत्र प्रभार दे रखा है
तुम ऋण भी देते हो
पर मुझे नहीं चाहिए
तुम प्रसाद भी बॉंटते हो
मुझे वो भी नहीं चाहिए प्रभु
तुम अनुदान भी देते हो
मैं अनुदान भी नहीं मॉंगता प्रभु !
एक बार हम मिले थे
दूर बहुत दूर
तुम मुझसे बतियाते थे प्रभु
लेकिन मैं भी जल्दी में था
बात भी हुई थी
तुमने कहा था
कि यह द्वार स्वर्ग का है
याद है ना तुम्हें
पर मैनें कहा था
कि मुझे न स्वर्ग चाहिए
और न नरक चाहिए
मुझे तो केवल मनुष्य जीवन चाहिए
मुझे तो तुम्हारा ठिकाना चाहिए
केवल मनुष्य जीवन चाहिए प्रभु !