भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तेरा स्वर कानों में गूँजा / कमलेश द्विवेदी
Kavita Kosh से
तेरा स्वर कानों में गूँजा जैसे गूँज उठी शहनाई.
मेरे मन की वीणा तूने कितने मन से आज बजाई.
जाने कबसे बैठा था मैं
लिये लेखनी अपने कर में।
पर तेरा आगमन हुआ जब
मैंने गीत रचा पल भर में।
कुहुक उठी भावों की कोयल महक उठी मन की अमराई.
तेरा स्वर कानों में गूँजा जैसे गूँज उठी शहनाई.
मैं आनन्द-सिन्धु में डूबा
वाणी में गुंजरित ऋचायें।
आलोकित मेरा घर-आँगन
आलोकित हो गयी दिशायें।
तेरी अनुपम आभा ने यह कैसी दिव्य ज्योति फैलाई.
तेरा स्वर कानों में गूँजा जैसे गूँज उठी शहनाई.
कितनी धन्य दृष्टि है मेरी
अपलक तेरी छवि निहारती।
रोम-रोम में दीप जल उठे
श्वास-श्वास गा रही आरती।
जाने किन पुण्यों के कारण मैंने यह दुर्लभ निधि पाई.
तेरा स्वर कानों में गूँजा जैसे गूँज उठी शहनाई.