भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तेरी तस्वीर को तस्कीन-ए-जिगर समझे हैं / फ़ज़ल हुसैन साबिर
Kavita Kosh से
तेरी तस्वीर को तस्कीन-ए-जिगर समझे हैं
तेरे दीदार को हम ज़ौक़-ए-नज़र समझे हैं
क़हर की आँखों से तुम ने हमें जब भी देखा
हम इसे ऐन मोहब्बत की नज़र समझे हैं
है यही उन का समझना तो ख़ुदा हाफ़िज़ है
तालिब-ए-ख़ैर को वो बानी-ए-शर समझे हैं
उन की मानिंद कोई साहब-ए-इदराक कहाँ
जो फ़रिश्ते नहीं समझे वो बशर समझे हैं
अपनी आँखों में जगह देते हैं मुझ को ‘साबिर’
मेरे अहबाब मुझे कोहल-ए-बसर समझे हैं