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तेरी सूरत जो दिलनशीं की है / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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तेरी सूरत जो दिलनशीं की है
आशन: शक्ल हर हँसी की है
हुस्न से दिल लगाके हस्ती की
हर घड़ी हमने आतशीं<ref>आग जैसी जलती हुई</ref> की है
सुब्हे-गुल<ref>फूल (बाग़) की सुबह</ref> हो कि शामे-मयख़ान:
मदह उस रु-ए-नाज़नीं की है
शैख़ से बे-हिरास<ref>निडर</ref> मिलते हैं
हमने तौबः अभी नहीं की है
ज़िक्रे-दोज़ख़, बयाने-हूरो-कुसूर<ref>सुंदरियों और महलों की चर्चा</ref>
बात गोया यहीं कहीं की है
अश्क तो कुछ भी रंग ला न सके
ख़ूँ से तर आज आस्तीं की है
कैसे मानें हरम के सहल-पसन्द
रस्म जो आ’शिक़ों के दीं<ref>दीन, धर्म</ref> की है
’फ़ैज़’ औजे-ख़याल<ref>कल्पना की उड़ान</ref> से हमने
आसमाँ सिंध की ज़मीं की है
शब्दार्थ
<references/>