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तेरे शहर में प्यार फ़क़त अफ़साना है / रविकांत अनमोल

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तेरे शह्‌र में प्यार फ़क़त अफ़साना है
मेरे गाँव का हर पत्थर दीवाना है
            
मैं प्यासा हूँ जाने कितने जन्मों से
तेरी आँखों में पूरा मयख़ाना है
            
मेरे होंटों पर है प्यास समन्दर की
लेकिन हाथों में ख़ाली पैमाना है
            
कुछ तो खोना पड़ता है कुछ पाने को
तेरी ख़ातिर क्या-क्या मुझे गँवाना है
            
सूरज हूँ हर वक़्त सफ़र में रहता हूँ
क्या बतलाऊँ कितनी दूर ठिकाना है
            
और किसी से क्या उम्मीद वफ़ाओं की
मेरा अपना साया भी बेगाना है
            
ए मिट्टी से बच-बच के चलने वाले
इक दिन तुझको भी मिट्टी हो जाना है