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तेसरोॅ सर्ग / अंगेश कर्ण / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'

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गुमसुम बैठी गंगा काती
सोचै कर्ण बहुत्ते की-की,
अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर सें लै
दुर्योधन के बारे में भी।

”पाण्डव नै चाहै छै कौरव
कौरव नै पाण्डव केॅ चाहै,
छुपलोॅ होलोॅ भितरघात छै
वैं जानै, जे मन केॅ थाहै।“

”दुर्योधन मानै छै हमरा
अपनोॅ प्राणोॅ सें भी ज्यादा,
ककरोॅ वास्तें कुछुए होएॅ
हमरा लेॅ दिल ओकरोॅ सादा।“

”जों कल कुछुवो दुर्योधन पर
जरो विपत्ति आवी गेलै,
आरो हम्में कुछ नै करलौं
तेॅ रिश्ता की रिश्ता भेलै!“

”दुर्योधन नै मित्रे हमरा
भइये रं हमरा मानै छै,
भले सहोदर नै छी दोनों
पर यैसें की कम जानै छै!“

”हेना में हमरा की चाही
संकट में संग छोड़ी आबौं,
या दुर्योधन के संकट केॅ
बाघ बनी केॅ तुरत उठाबौं।“

”अपने माथोॅ पर सब लै लौं
दुर्योधन पर जे भी आबेॅ,
आँख कना ऊ छोड़ी देवै
दुर्योधन पर कोय उठाबेॅ।“

”लेकिन पाण्डव के बीचोॅ में
अर्जुन केरोॅ बड़ी धाक छै,
धनुष-कला केकरौ में कत्तो
अर्जुन सम्मुख धूल-राख छै।“

”अर्जुन तीर-कला में माहिर
गुरु द्रोणोॅ के अद्भुत चटिया,
जली राख सब रोॅ ही बुद्धि
आगिन में जों सुखलोॅ पटिया।“

”आरो गुरु द्रोणोॅ लेॅ हम्में
दुश्मन नाँखी जात-कुलौ सें,
हमरा शिष्य बनैतै केना
अधिरथ-सुत केॅ हाय भुलौ सें।“

”लेकिन हम्मू सिखिये रहवै
अर्जुन नाँखी तीर-कला केॅ,
रोकी केॅ रखनै छै हमरा
आवै वाला कोय बला केॅ।“

एतना सोची कर्ण वहाँ सें
उठलै वीर भाव सें भरलोॅ,
आरो कौनो शंकाओ सें
दिशा-दिशा देखै छै डरलोॅ।

उठलै आरो सीधे बढ़लै
महेन्द्रांचल के ओरी दिश,
वैर-भाव केॅ धोलेॅ-धालेॅ
पोछी-पाछी मन के सब रिश।

ठाढ़ोॅ होलै सम्मुख ऋषि के
परशुराम रोॅ जाय पास में,
जे विद्या के खान धनुषधर
जानै के कुछ नया आस में।

परशुराम के रूप निहारी
कर्ण विनय में झुकलोॅ गेलै,
देखी सबटा भाव ऋषि के
मुँह पर भी मुस्कानो ऐलै।

बोली उठलै, ”तरुण युवक के
के तों छेकौ, की चाहै छोॅ?
तोरोॅ मन में की शंका छौं
जेकरा रही-रही थाहै छोॅ?“

सुनथैं ऋषि के वचन कर्ण ठो
होलै सजग, कही ई उठलै,
”धनुष ज्ञान के कौशल चाहौं“
हाथ विनय में फेनु जुड़लै।

”लेकिन तोरोॅ भेषे लागौं
क्षत्री केरोॅ वही मुठौनोॅ
होने छाती, होने बाँही
होने गर्दन, होने धौनोॅ।“

”हेनो में मुश्किल ही समझोॅ
तोरा अपनोॅ शिष्य बनैवोॅ,
जे ब्राह्मण के कुल के नै छै
बेरथ समझोॅ यै ठां ऐवोॅ।“

बात सुनी केॅ घबड़ैलै नै
तनियो टा भी कर्ण वहाँ पर,
होने भाव बनैलेॅ छेलै
जे छेलै जे भाव जहाँ पर।

मुश्किले रहलै बड़ी विनय सें
विप्र कुँअर रं वहा हाव में
परशुराम कॅ विप्र बुझैलै
बहलै हुनियो गुरु भाव में।

”विप्र कुँअर तों, तेॅ डर केन्होॅ
आय सें हम्में तोरोॅ गुरु छी,
तोहें हमरोॅ आय सें चेला
दै लेॅ विद्या आय सें शुरु छी।“

फेनू की छेलै ऊ दिन सें
कर्णोॅ के कौशल केॅ देखी,
परशुराम गुरु के दिल गदगद
भाग्य नया कुछ दै छै लेखी।

अचरज में गुरुजी तक विस्मित
तुरत सिखाबै, तुरत सिखै छै,
जे होलै नै इतिहासोॅ में
कर्ण वही सब पाठ लिखै छै।

लेकिन भाग्य कर्ण रोॅ अभियो
होने टेढ़ोॅ-टेढ़ोॅ छेलै,
समझलकै जेकरा कि सोझोॅ
ऊ तेॅ टेढ़ोॅ-मेढ़ोॅ छेलै

ऊ दिन सचमुच शनी बनी केॅ
यमराजे रं निर्दय निष्ठुर,
आवी केॅ खाड़ोॅ भै गेलै
घोर हलाहल, दिन विष, माहुर।

परशुराम माथोॅ रक्खी केॅ
कर्णोॅ के जंघा पर जखनी,
सुतलोॅ छेलै घोर नीन में
दुष्ट कीट इक ऐलै तखनी।

कर्णोॅ के जंघा केॅ कुतरी
कीड़ा खून चुसै नी लगलै,
बहलै धार लहू के साथें
लहू छुऐथैं गुरुवर जगलै।

धड़फड़ाय कॅ उठलै अकबक
फेनू देखी कॅ सब लीला,
परशुराम के क्रोध भड़कलै
देह लहू सें गीला-गीला।

”अरे कर्ण तों क्षत्री निश्चित
सत्य छुपैलेॅ छैं हमरा सें,
वही कर्म तोहें करलेॅ छै
पुण्य गिरै छै सब जकरा सें।“

गुस्सा देखी कर्ण सहमलै
बस एतने टा बोली रहलै,
”क्षमा हुएॅ गुरुदेव, क्षमा देॅ
बात खुली चुकलोॅ छै पहिलै।“

”हम्में नै ब्राह्मण कुमार छी
क्षत्री भी नै, दलित युवक बस,
नींद कहीं नै उटै गुरु के
यही सें होलां नै टस सें मस।“

”कुल वंशोॅ सें भले आन छी
लेकिन हृदय सुरो सें ऊँच्चोॅ,
झूठ भले जातोॅ लेॅ कहलौं
भाव हृदय के एकदम सुच्चोॅ।“

”कर्ण हृदय नै भेदें तोहें
बात सुनै लेॅ कुछ नै आबेॅ,
हेनोॅ कोय रस्ता नै बचलोॅ
जहे हमरोॅ दिल केॅ बहलाबेॅ।“

”एक बार तों झूठ कही केॅ
फेनू झूठ कही रहलोॅ छैं,
क्षत्री तोहें लौटी जो घ्ज्ञर
बचबे क्रोध सें तों पहिलोॅ छैं।“

”तोरोॅ भक्ति ही देखी केॅ
तोरा हम्में छोड़ी रहलौं,
शिष्य बुझैं बातोॅ केॅ हमरोॅ
वही करें तों, जे कुछ कहलौं।“

”तोरोॅ पाप क्षमा लायक नै
तोहें जे सिखलेॅ छैं अब तक,
ऊ तोरा कुछ काम नै ऐतौं
आधोॅ भूली जैवैं भरसक।“

ई बोली मुँह फेरी लेलकै
बड़ी निठुर रं परशुराम नें,
मुँह के बोल बड़ी मुश्किल सें
लोर वही रं हुनी थामनें।

कर्ण हृदय पर रात उठैनें
लौटी गेलै राख बनी केॅ,
जे दुर्भाग्य रहै मुरझैलोॅ
खाड़ोॅ होलै तुरत तनी केॅ।