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तेसरोॅ सर्ग / अतिरथी / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'

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चमकी उठलै कक्ष कर्ण रोॅ
सूर्ये रं पावी इंजोर केॅ
यहेॅ बुझैलै कोय ऐलोॅ छै
लादी आनलेॅ रहेॅ भोर केॅ।’

गुजगुज रात अन्हरिया छेलै
बस मशाल के ही इंजोर में
चमकै शीशा केरोॅ झालर
जेना सूरज किरिन भोर में।

सैनिक भेषोॅ में ओघरैलोॅ
अग देस रोॅ कर्ण प्रतापी
आँखी में सपना हेलै छै
सब उबाल रखलेॅ छै थापी।

बात मनोॅ में ढेरी-ढेरी
एक्के साथ उठी रहलोॅ छै
सावन-भादो के बोहोॅ जों
चानन-चीरोॅ में बहलोॅ छै।

सोचै छै-‘कल की-की होतै
जीत विजय लेॅ की-की करबै
जे हमरोॅ बैरी मन-धन के
ओकरा मारी केॅ ही मरबै।’

‘हमरोॅ कुल केॅ नीच कहेॅ जे
हमरोॅ मन केॅ हीन बताबेॅ
ओकरे लेॅ तेॅ समय युद्ध ई
ओकरा बचना मुश्किल आबेॅ।’

‘अबकी निर्णय होय केॅ रहतै
वंश बड़ोॅ या शील शौर्य छै
ओकरोॅ गोड़ तेॅ टुटले ही छै
जे ठुट्ठा पीपर पर नाँचै।’

‘भगवानोॅ के आड़ लै करी
करेॅ कोय अन्याय अगोचर
सब के एक नतीजा होतै
कुछ कलंक जाय भगवानो पर।’

‘की रं हाँफै छै अधर्म ठो
की रं छै अन्यय प्रसन्नो
छल के छाया, अनाचार के
देखौं, हम्में जाय छी जन्नो।’

‘विधियो ठो अन्याये के संग
जरियो सोच-विचार कहाँ छै
पुण्य-धर्म के सम्मुख पापी
तनियो टा लाचार कहाँ छै।’

‘कलियुग के आरम्भे में ई
कलियुग रोॅ ई घोर अमावश
खड़ा फसल पर सतहा जेहनोॅ
ई घनघोर प्रलय के पावस।’

जे निर्दोष वही छै दोषी
अरे कर्ण धिक्कार तोरा छौ
जों चुप बैठें-जरियो भय सें
हेरै ई संसार तोरा छौ।’

लिखना छौ इतिहास तोरा ऊ
जे लिखले ही नै गेलोॅ छै
आनै छै ऊ भोर भुरुकवा
जे अब तांय भी नै ऐलोॅ छै।’

‘आरो की-की अभी उठतियै
किसिम-किसिम के भाव मनोॅ में
कि तखनी ही फैली उठलै
अजगुत रं इंजोर क्षणोॅ में।’

चमकी उठलै कक्ष कर्ण रोॅ
सूर्ये रं पावी इंजोर केॅ
यहेॅ बुझैलै कोय ऐलोॅ छै
लादी आनलेॅ रहेॅ भोर केॅ।’

धड़फड़ाय केॅ उठलै, देखै
अजगुत दिरिश अनोखा खेला
कक्ष-द्वार पर किरिन पुंज रोॅ
लगलोॅ होलोॅ ठेलम-ठेला।

वही किरिन के बीच पुरुष
इक आकुल-व्याकुल चिन्ता सें छै
मुकुट-वसन सब अस्त व्यस्त रं
जेना सो असगुन केॅ बाँचै।

पहिलें तेॅ विश्वास नै होलै
जरियो टा भी कर्ण वीर केॅ
आ शंका में पकड़ी लेलकै
तरकस में तनलोॅ तुनीर केॅ।

तभिये स्वर इक गूंजी उठलै
‘वत्स, नै द्वारी पर बैरी छौं
तोहरे पिता खड़ा छौ आबी
दुख आबै में कुछ देरी छौं।’

‘कल जखनी पूजा पर होभौ
पूजा करी उठी केॅ ठाड़ोॅ
सम्मुख पैबौ एक विप्र कॅे
याचक रूपोॅ में छौं खाड़ोॅ।’

‘छदमी तोरोॅ ऊ जीघाती
तोरोॅ जानोॅ के हन्ता छौं
तोहें छल में नै अइयोॅ बस
एकरे हमरा ही चिन्ता छौं।’

‘तोहें कुछ माँगै लेॅ कहभौ
कवच-कुण्डले केॅ ऊ लेतौं
एक्के जिद बस कवच-कुण्डले
कुच्छुवो सें संतुष्ट नै होतौं।’

‘समझी लीयोॅ छली इन्द्र ऊ
तारोॅ प्राणोॅ के ऊ घाती
यहेॅ कहै लेॅ ऐलोॅ छीयौं
भोर सें पहिलैं रातिये राती।’

‘तोरोॅ जय-ई कवच-कुण्डले
कवच-कुण्डले दुश्मन पर लय
एकरोॅ छिनतेॅ ही समझी लेॅ
छिनी गेलौं तोरोॅ जय अक्षय।’

‘कुरुक्षेत्र के भाग्य पलटतौं
एकरे रहलैं सें जानी ला
एकरोॅ छिनथैं भाग्य छिनैतौं
बात गेंठ सें ई बान्ही ला।’

‘कवच-कुण्डले परिचय तोरोॅ
कवच-कुण्डले जाति-वंश भी
कवच-कुण्डले ही माय तोरोॅ
कवच-कुण्डले पिता अभी।’

‘एकरोॅ रहतै तीन लोक के
तीन करोड़ो पानी भरथौं
एकरोॅ जैथैं निर्बल रेखा
बली बनी केॅ उपटी ऐथौं।’

‘काल बनी विपरीत खड़ा छौं
आबै लेॅ तोहरोॅ द्वारी पर
संभलोॅ पूत, भाव केॅ बांधोॅ
बाघ बैठलोॅ छौं बारी पर।’

‘जे याजक आबै वाला छै
विप्र बनी केॅ विप्र कहाँ ऊ?
छली इन्द्र बहुरूपिया छेकै।
मति एकरा में करियोॅ नै दू।’

‘माय-बाप रोॅ स्नेह छेकौं ई
कवच आरो कुण्डल भर नै ई
दोनों के आशीष समझियो
आरो कुछ की कहौं अभी’

‘भोर होय में बेर नै ज्यादा
बस चेताय लेॅ आबी गेलियौं
चूक जरो नै करियो बेटा
जीतोॅ रहोॅ अखम्मर! चलियौं!’

एतना कही अलोपित होलै
सूर्य-स्वर्ण के दिप-दिप काया
कर्ण अकेलोॅ बैठी सोचै
‘की अजगुत, केन्होॅ ई माया।’

‘माया नै ऊ पिता ही छेला
केन्होॅ दिव्य रूप ऊ अजगुत
आय तलुक नै देखेॅ पैलौं
सुन्दरतौ सें बढ़ी केॅ अद्भुत।’

‘पुरुष ऋषि रं, चिंता कातर
रूप देवतौ सें भी बढ़ी केॅ
ऐलोॅ छेला पिताहै निश्चय
किरिन रथोॅ पर चढ़लेॅ, चढ़ी केॅ।’

अपने आप झुकी सर गेलै
कर्ण महावीरोॅ के तत्क्षण
‘धन्य-धन्य छै हमरोॅ जीवन’
बात उठै छै एक्के क्षण-क्षण।

आँख मुँदी ऐलै कर्णोॅ रोॅ
तभियो रूप वही घूमै छै
लागै ओकरा रही-रही केॅ
ओकरोॅ भाल पिता चूमै छै।