तेसर मुद्रा / भाग 1 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी
गंगा द्वार कहू? अथवा अहँ हरद्वार छी?
देवापगा कि साधारण सरिताक धार छी?
की की छी वा की नहि छी, से रहत रहस्ये
जे किछु छी, जननीक हृदय छी, पुण्य धार छी
गंगा छी, गंगा कछार छी, तपोभूमि अहँ
तुंग हिमालयकेर पौरुषमयि प्राण भूमि अहँ
सारस्वत साधना शिखरकेर हे हृदयस्थल!
युग युगसँ देवाचार्यक प्रेरणा भूमि अहँ
ममतामय! माया ममतासँ दूर-दूर हम
वैयक्तिक आशा आकांक्षासँ सुदूर हम
दूर भने रहि सकी स्वर्गसँ हम आजीवन
राखि न सकबे अपन स्वदेशी तत्व दूर हम
बूझल अछि दक्षिणक तपस्या भंग योजना
बूझल अछि आतापिक वातापिक नियोजना
बूझल अछि सीमान्त सागरक अति उद्धतता
बूझल अछि सम्प्रति कालक राष्ट्रिय प्रयोजना
उत्तर आ दक्षिणक मध्य सीमाक तर्क की?
आसागरहिमक्षेत्र एकतासँ कुतर्क की?
विन्ध्याचल की अनुल्लंघ्य रहते युग युग धरि?
आर्य भूमिमे आर्येतर प्रभुताक अर्थ की?
शिक्षित करब अपेक्षित अछि सम्पूर्ण राष्ट्र के
एकत्वक अनिवार्य अपेक्षा छैक राष्ट्रके
आर्यावर्त्त, अखण्ड, अजेय, अकृश अजरामर
-एहि अनुभवक आवश्यकता छैक राष्ट्रके
साधन श्री सम्पन्न त्रिपथगा पुण्यस्थल हे!
महामहिम देवर्षि साधना मर्मस्थल हे!
इच्छुक अछि दस बीस बीत भूमिक नव दम्पति
गंगा हे, गंगा कछार हे, गंगाजल हे!
लोपामुद्रा छी, हुनकर संज्ञा अगस्त्य छनि
विद्या ज्ञान प्रचार प्रसारक हुनक लक्ष्य छनि
छी विदर्भ राजक कन्या आ ऋषि पत्नी हम
आयलि छी प्रियतमक चरण कमलक श्रद्धा बनि
गौरवमय इतिहास जराओल जा रहि सकते
पूर्व पुरुष लोकनिक विज्ञान लजा नहि सकते
सम्भव नहि अस्तित्व निरस्तित्वक खेमामे
ते क्लीवत्वक पाँखि बढ़ओल जा नहि सकते
चिन्तित मैत्रावरुण बहुत दिनसँ रहलनि अछि
संकल्पित भावे यज्ञक ढाँचा ठनलनि अछि
सहधर्मिणी विना यज्ञाग्नि पजरि नहि सकतै’
ते स्वेच्छा अनुकूल वरण हमरा सकमलनि अछि
वैदिक रीति प्रतीति न सम्भव छै’ पत्नी बिनु
गार्हपत्य अग्निक आहुति निष्फल पत्नी बिनु
संन्यासक अधिकार समान पुरुष पत्नी के
बनि पबैछ नहि पति कोनो मानव पत्नी बिनु
हरद्वार हे, हरिद्वार हे, नमस्कार हे!
जह्नुसुता गंगाक नैहरक चमत्कार हे!
हे केदार बदरिकाश्रमक शान्ति सोपानी!
हरू ताप संताप मोह मत्सर विकार हे!
भू पूजनक बाद आश्रम नियमनक क्रम चलल
किछुए क्षणमे हवन कुंड उल्लासे धधकल
वायु शुद्धिकेर हेतु धूम्र ध्वनि जकाँ ऊर्ध्वमुख
गृहिणी लोपामुद्रा कर्मठताक स्वर बनल
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तेजस्तापोज्ज्वल प्राण प्रभा परिखासँ
आमूलचल आवृत्त अगस्त्यक आश्रम
साधना सर्जना शील समन्वित स्वरमे
साकार स्वरूपे प्रतियोगी प्रतिभा श्रम
पतिदेव सदृश तथा निष्ठासँ
तप त्याग व्रतक पालनमे लोपामुद्रा
जँ ऋषि अगस्त्य सन स्वयं अगस्त्यक संज्ञा
लोपामुद्रा सन अपनहि लोपामुद्रा
ऋत अथवा नीति व्यवस्था विधि पालनमे
लोपामुद्रा व्रत नेम क्षेम अनुरक्ता
सारस्वत सेवा सिद्धि समाधि लगौने
योगाभिमुखी जनु संयम सुधि साधकता
वैदिक मंत्रध्वनिसँ गुंजित भू अम्बर
मुद्रानुगमनमे बोधगम्य गायत्री
प्रत्येक तान, तुक, गति, यति, लयमे सस्वर
प्रतिक्षण प्रतिपल लोपामुद्रा कवयित्री
भोरे गंगामे नहा नवग्रह पूजा
पूर्णतः परीक्षण समिधा साकल्यादिक
तदनन्तर हवन कर्म, विधिवत् वरुणार्चन
विनियोग पुरस्सर आवाहन मंत्रादिक
तहिना पशु पक्षी सेवा, पाक विधायन
आतिथ्य, अध्ययन, अध्यापन आ चिन्तन
ऋषिश्रेष्ठक एकाकी जीवन मरु थलमे
लोपाक उपस्थितिये आत्मामृत सिंचन
आश्रमी व्यवस्थासँ संतुष्ट अगस्त्यक
मन रमल कठिन आणविक तपश्चर्यामे
निश्चिन्त भावसँ समाधिस्थ भ’ ऋषिवर
शिववत्, शिवत्वरत, शैव शाक्त अर्चामे
बीतल दिनपर दिन, मास वर्ष्ज्ञ, पदमासन
लगले रहि गेल; बन्न दृग कली कला सन
पूजाक फूलसँ बीज, बीजसँ तरुवर
विककसल, परिवर्तित कुशमे भेल कुशासन
झड़ि ऋषिक देहपर पारिजात पुष्पावलि
छातीधरि पुंजीभूत भेल लगइत अछि
जनु कैलासक शुचि शिखर हिमाच्छादित हो
वातावरणक दिव्यता बहुत फबइत अछि
सुधि नहि कि शुकी चढ़ि कान्ह ऋचा बाँचै’ अछि
हरिणी चारू दिस घूमि-घूमि नाचै अछि
बानर अछि लगा रहल अनुकरणी आसन
दुपहरक सूर्य इन्द्रत्व जकाँ आँचै’ अछि
अनुभव नहि जे नव परिणीता आश्रममे
अछि गेंठ जोड़ि क’ अग्नि प्रज्वलित रखने
आभास कनेको नहि कि अनिद्रित लोपा
जाइछ अखण्ड दीपक बाती उकसौने
ई दृश्य देखि लोपा अछि किंचित चिन्तित
कलशक जलसँ कयलक शरीर अभिसिंचित
प्रियतमक प्राण वायुक अनुमान लगौलक
भ’ गेल स्वतः सहधर्म राग अनुरंजित
धरतीपर देह, नेहमय मन अम्बरमे
अति तीव्र वेगसँ घूर्णित लक्ष्य पिपासित
अछि अन्तरिक्षमे कत’ अगस्त्यक आत्मा
से ज्ञान हेतु इच्छा शर अनुसंधानित
संवेग सघन भ’ गेल, भेल ऊर्जस्वित
काव्यमयि, मंत्रमयि, ऋचा गानमयि लोपा
प्रक्षेपित मन हे परा विन्दुपर पहुँचल
ते भेल क्षणहिमे प्रियक प्राणमयि लोपा
चिन्ताक परिस्थिति नहि कोनो, सु बुझलक
सुझलै कि मंत्र दर्शनमे ऋषि लागल छथि
प्राकृतिक सत्य तादात्म्य बोधमे जागल
अथवा अति वैद्युत चिन्तनमे रागल छथि
देखैछ कि छथि कविवर अगस्त्य ऋग्वेदित
इन्द्रित, वरुणित, मरुतित, त्रिष्टुप छन्दायित
जगती, गायत्री, उष्णिक, पंक्ति, अनुष्टुप
बृहती-ई छन्द विविधता अछि देवायित
लोपा देखैछ: अगस्त्य ध्यान धवलित छथि
उड्डयनशील छनि मन, तन योगानन्दित
विज्ञान सत्य अध्यात्म तुलापर चढ़ि-चढ़ि
क’ रहल मंत्रमयताक तन्त्राके मुखरित
कारुण्य कथागत व्यथा पीबि क’ ऋषिवर
अमृतक अवदान मनुष्य मात्रके दै’ छथि
प्रचलित करबाक निमित्त विकास प्रथाके
प्रतिकूल प्रकृतिके अनुकूलित क’ लै’ छथि
सृष्टिक कल्याणक हेतु इन्द्रके कविवर
अनुकूल करै छथि; वृष्टि प्रभाव मङै छथि
धरती विविधान्नपूर्ण हो-ई इच्छासँ
मरुतक सताके अपना निकट अनै’ छथि
लोपा पबैछ ऋषि श्रेष्ठ अगस्त्यक स्वर सुखः
हे मरुत! इन्द्र हमरा कवित्व देलनि अछि
परिचय तोहर पयबामे अछि नहि बाधा
तो छह जनिके गण, सैह शक्ति देलनि अछि
हे इन्द्रध्वज! रहथि नहि दुखी हविदाता
बरिसह, धन-धान्यपूर्णता धरतीपर हो
मानव बलपूर्ण, जयी, दानी बनि पाबय
उत्तम कर्त्तव्य ज्ञान प्रतिमान प्रखर हो