भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तोंद निकल आई / भाऊराव महंत
Kavita Kosh से
टूट गया है
बटन पैंट का,
तोंद निकल आई।
कभी कोयला,
कभी यूरिया,
कभी घास खाते
तुम तो अपनी
आमदनी से,
ज्यादा ही पाते।
भरा नहीं पर
कभी तुम्हारा,
बड़ा पेट भाई।।
जहाँ मिला
मुँह मार-मारकर,
खाते रहे चने।
इसी तरह तुम
इस दुनिया में,
धन्ना सेठ बने।
देते हो कौड़ी
पर ले-लेते
पाई -पाई।।
ज्ञानवान हो,
तुम्हें पता है,
सब कुछ नश्वर है।
फिर भी लिप्सा-
स्वार्थ-लोभ की,
बनती पिक्चर है।
क्योंकि तुम्हें तो
नित्य चाहिए,
दौलत हरजाई।।