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तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो बंधन जंज़ीरों के जो / विजेन्द्र
Kavita Kosh से
तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो बन्धन ज़ंजीरों के जो
तुमको कसे हुए हैं सदियों से। अब उनको
तो़ड़ो। मुक्ति नहीं जो मिली हुई है, तोड़ो
कसकर ज़ड़ आधारों को। उन जलधाराओं
को मोड़ो जो दिशाहीन बहती मैदानों
में। निर्धूम आँच में तपकर ही कुन्दन बनता
है कच्चा सोना। मरुथल में नित जो खिलता
है अलख रोहिड़ा। हीरा छिपा हुआ खानों
में भीतर। चट्टानें तुमने तोड़ी हैं अपने
ही बल पर। मार्ग बनाए हैं पर्वत पर चलकर।
न हों निशान पाँवों के तो क्या - आगे लखकर
क्षितिज दिखाए हैं। मूर्तित होते हैं सपने।
अग्निपरीक्षा है जीवन - हमको मिला हुआ है
अंकुरित न होगा बीज अन्दर से घुना हुआ है।