भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तो क्या हमको मोहब्बत हो गई जी ? / श्रद्धा जैन
Kavita Kosh से
है छाई बेसबब दिल पर उदासी
तो क्या हमको मोहब्बत हो गई जी ?
कभी हो, राह मैं भी भूल जाऊं
बुलाये चीख कर अंदर से कोई
कभी रोशन, कभी तारीक़ दुनिया
तुम्हें भी क्या कभी लगती है ऐसी ?
ज़ज़ीरे की तरह है ज़िंदगी अब
उभरती डूबती रहती है ये भी
मेरे सर पर है साया बादलों का
ज़मीं पैरों के नीचे आग जैसी
सदा मेरी कहाँ सुन पाएंगे वो
जिन्होंने ज़िंदगी भर जी ख़ामोशी
अभी तक ख्वाब कुछ ज़िंदा हैं लेकिन
मेरी आँखों से शायद नींद खोई