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त्रासद--गाथा / प्रेम कुमार "सागर"

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गाँव-जगत की अनुपम काया
रिश्तों की एक चंचल माया
जननी-जनक की गीली आँखें
उनीन्दे कुछ कौवों की पाँखे;

पलकों में कुछ सपने लेकर, अनजाने से अपने लेकर,
दौड़ चला झकझोर चला मै, अपना सबकुछ छोड़ चला मै.

अनदेखे-अनगिन पथ पर आया
रोया-सिसका-फफका-घबराया,
रात, रात, बस रात अँधेरा
कहाँ उजाला कहाँ सवेरा;

लगी टूटने कोमल यादें, लगे दरकने सारे वादें
स्मृतियों की ओर चला मै, अपना सबकुछ छोड़ चला मै.

तीन सहोदर पगडण्डी पर
चुन रहे रक्तिम इन्दीवर
दुनिया को कदमों में रखे
अपनी धुन के पक्के-पक्के;

टूटी फिर सब मनहर कड़ियाँ, बिखरी संजोयी मन-घड़ियाँ
यादों की लड़ियाँ तोड़ चला मै, अपना सबकुछ छोड़ चला मै.

मन फिर से पहूँचा उसी धाम
तन्द्रा आई जिस पल अविराम
सोते से पुनः मै जाग गया
एक सरस सुकोमल फाग गया;

दिखा कि तभी एक देवदूत, सांवला-सलोना-स्वच्छ-सपूत
संबल पाकर मनमोर चला मै, उस तरु से खुद को जोड़ चला मै.

पायी अग्रज तरू की छाया
स्नेह-सुख-चित्त हर्षाया
प्रफुल्लित पल आ मिले गले
अंकुर फिर से नव साथ चले

एक बड़ी छत के नीचे में, फल छाँह पूरित बगीचे में
रस लेकर भाव-विभोर चला मै, उस तरु से खुद को जोड़ चला मै

पंख लगाये समय चल पड़ा
खुद से आगे मै निकल पड़ा
फिर जा पहुंचा नए लोक मै
मिले वहाँ नव-तरु थोक में;

रंग-बिरंगे फूलों वाले, गोरे-गोरे काले-काले,
देख उन्हें कर शोर चला मै, लेकर नयी हिलोड़ चला मै.

नया रक्त संचार हुआ फिर
नए कुसुम से प्यार हुआ फिर
लगा नया मै वहां सीखने
नए स्वप्न फिर लगे दिखने;

नयी-नयी धारा में बहना, रोज़ नयी दुनिया में रहना
नयी सड़क पर दौड़ चला मै, लेकर नयी हिलोड़ चला मै.

वर्ष-अर्ध होने अब आया
नया जगह हो चला पराया
तरुवर मित्रों से विदा कर चला
फिर से यह जीवन बड़ा खला;

निर्दोष तरु कुछ साथ रहे, आपस में जुड़े कुछ हाथ रहे,
लेकर सबको पुरजोर चला मै, अग्रज तरु की ओर चला मै.


हाँ, सत्य, समय था वह सुन्दर
हम साथ रहे कक्ष के अन्दर
मुझपर न पड़ा दुःख का साया
मेरा दुःख भी उसने पाया;


वह रहा सदा जलधि समान, सबके अश्रु का बन उपमान
दुःख दर्द लिये बिन शोर चला वह, करता उपवन विभोर चला वह

सबके ह्रदय का वह गीत था
अरि हेतु भी निश्छल सा मीत था
अभिभावक, सखा कुछ भी कह लो
स्नेह-निर्झर में जी भर लो ;

वह कभी कुपित न होता था, दुःख में उमंग से सोता था,
लेकिन बंधन को तोड़ चला वह, एक दिन सबको ही छोड़ चला वह.

उड़ चला सखा अनंत असीम
जो अब तक था सबका अजीम
यूँ ही कैसे भाग चला वह
आग्रह मेरा लांघ चला वह;

उसको मालूम था मै गरीब, मेरा तो था वह सदाशिव
फिर क्यूँ मुझको झकझोर चला वह, मेरी किस्मत को फोड़ चला वह.

तनदाता की सुखी आंखे
जननी तेरा रस्ता ताके
तू गया क्यूँ और कौन लोक
फिर मुझे गया क्यूँ यहाँ रोक;

क्या जगह न थी तेरे रथ में, या बना स्वार्थी तू पथ में,
जलती आँहों को खोर गया तू, मुझसे मुख क्यूँ मोड़ गया तू.

तेरे बिन बोलो मै क्या हूँ ?
बिन छत के टूटे घर सा हूँ
एक अनाथ-अनगढ़ सा मै
सुना-सुना डगर सा मै;

कब तक मै राह तकूँ तेरा, कब तक मै पाँव पडू तेरा,
काँटों में अकेला छोड़ गया तू, मुझसे मुख क्यूँ मोड़ गया तू
हाथों की लकीरें दिखलाया
क्या दुःख ही हाथ मेरे आया
विषाद मिला असीम अनंता
जब ज्योतिष ने कहा मै भात्रहंता;

इश्वर क्यूँ इतना नीच रहा, भाई को ही मुझसे खीच रहा
क्यूँ मनहूस करार चला वह, जीते जी मुझको मार चला वह.

अब क्या भूलूं कैसे भूलूं ?
किसकी बाहों में मै झूलूँ ?
किसपर है अब अधिकार मेरा
अब कौन सहेगा भार मेरा ?

किसके आगे मै नाज़ रखूं, इस दिल का सारा साज़ रखूं,
अपराध-बोध ले आज चला मै, स्वयं ही से गया छला मै.

गरल अकंटक पी-पीकर
लाश बना मै जी-जीकर
किस्मत की ठोकर खा-खाकर
विरह वेदना गा-गाकर;

किसी तरह से जा सम्हला, जितना गलना था खूब गला,
जो राह मिली चल निकला मै, नव-साँचे में ढल निकला मै.

कि आ गयी फिर से एक व्यथा
मनोभावों की एक दारुण कथा
खुद के असमंजस से लड़ता
चल रहा था मै गिरता-पड़ता;


तरूणी ने रस्ता रोक लिया, मन ने मष्तिष्क को सोख लिया,
अनहोनी कर बैठा मैं, एक बार पुनः मर बैठा मै.


क्या कहूँ भाग्य का मै मारा
दुर्दिन की आँखों का तारा
कैसा मेरा यह खोता है
हरदम उल्टा ही होता है ?



कंटक क्या राह न छोड़ेंगे, कलंक क्या बाँह न छोड़ेंगे,
तो क्या मै ही छोडूं जग को, जाने दूँ भ्राता-पथ पग को, जाने दूँ भ्राता-पथ पग को |