भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

त्रिपदी / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक-

सौंसे अतीत जकर तीते व्यतीत भेलै
वर्त्तमान वर्त्तनमे गलिगलि खसैत अछि
से भविष्य केर पुनः मधुर कल्पनाक पाँक
मध्य पैर राखि जानि बूझि कय फँसैत अछि
जीवन केर बाट जकर पिच्छड़ रहलैक सदा
आनकेँ खसैत देखि सेहो हँसैत अछि
अयना लग ठाढ़ अपन टेटर नहि देखि सकय
अपने मुँहटैढ़ा मुँह अनकर दुसैत अछि।

दू-

कहिकय युगधर्म लाज-शर्म लोक तेजि रहल
जानय नहि मर्म आ मर्मज्ञे कहबैत अछि
खत्तामे गुड़कुनि गैंचीलय मारय से
अनका सिमरिया धरि सोझे नहबैत अछि
एक घोंट पानि हेतु बाप जकर मुइलथिन से
पितरपच्छ पाबि पितृलोककेँ दहबैत अछि
अनका भूदान केर महिमा सुनाबय आ
अपने शमशान ब्रह्मधानों ढहबैत अछि

तीन-

शासन बेरोक अनुशासन-विहीन लोक
भारतीय संस्कृति शीर्षासन करैत अछि
रासन पर जाहि ठाम जनता जीबैत रहय
भाषण पर ताहि ठाम उचिते मरैत अछि
वासन हो पैघ आ सिंहासन दुरुस्त रहय
ताही लय डारि पात सभ दल धरैत अछि
फाँटि पर चढ़ैत कते गोटी उफाँटि मुइल
सुधुआ पछड़ैत तथा बुधुआ ससरैत अछि।