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थकन के बाद / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
एक बोझ-सा उतरा तो हम
फैल साए-से
बिना नहाए मिली ताज़गी
लगे नहाए-से
वोट डालकर मजबूरी को
घर की ओर मुड़े
आँगन की क़िताब के सारे
पन्ने उड़े-उड़े
एक ज़िल्द में लगे दीखने
बँधे-बँधाए से
एक दृष्टि रस भीनी-भीनी
तन-मन वार गई
नन्हीं-सी किलकारी सारी
थकन उतार गई
लगी खींचने हर फ़रमाइश
दाएँ-बाएँ से
गन्ध रसोई की धाई-सी
छू कर बिखर गई
माथे की दफ़्तरी शिकन की
स्याही उतर गई
सूरजमुखी ज़िन्दगी के दुख
हुए पराए-से