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थारै पछै (5) / वासु आचार्य
Kavita Kosh से
नीं तो अकास सुळग्यौ
नीं ई उठी जमीन लपटा
नीं ई तारा तिड़क्यां
नीं ई चटक्यो चन्द्रमा
अर नीं ई
सूरज सकपकायौ
नीं ई जंगळ रै
जंग लाग्यौ
नीं ई सै‘र मांय
सरणाटो छायौ
कठै‘ई-कीं नीं हुयौ
म्हारी आत्मा
म्हारो‘ईज रूं रूं तिलमिलायौ
कठै‘ई कीं नीं हुयौ
म्हारी कविता
म्है‘ईज आखरा-सबदा
अर भासा बायरो
रैयग्यौ-हाडमांस रो लौथड़ो बण
आंख्यां फाड़तो
आभो ताकतो
जमीन कुचरतो
थारै पछै
थां...रै पछै