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था कहा, “रम्य हृदयेश्वरि! राका-पति रत्नाकर-रहस मिलन / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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था कहा, “रम्य हृदयेश्वरि! राका-पति रत्नाकर-रहस मिलन।
दिव-दुर्लभ सुमुखि! गोप-नर्तन कल चंचरीक-पटली-गुंजन।
यह क्लान्त-श्रान्त गिरि-सरि-निर्झर मनहर वन-खग-वासंती स्वर।
कितना प्रिय करूण स्पर्श-कम्पित कर, स्वर पावसी सजल जलधर”।
कहते “आहलादक कंजमुखी! कितना शरदातप स्वरित वेणु।
प्रस्फुटित विटप-किसलय कोमल चंचल बालक-तन-लिप्त रेणु”।
आ सुषमागार! अपार दुखी बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥85॥