था गै़र का जो रंज-ए-जुदाई तमाम शब / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'
था गै़र का जो रंज-ए-जुदाई तमाम शब
नींद उन को मेरे साथ न आई तमाम शब
शिक्वा मुझे न हो जो मुकाफ़ात हद से हो
वाँ सुल्ह एक दम है लड़ाई तमाम शब
ये डर रहा के सोते न पाएँ कहीं मुझे
वादे की रात नींद न आई तमाम शब
सच तो ये है कि बोल गए अक्सर अहल-ए-शौक
बुलबुल ने की जो नाला-सराई तमाम शब
दम भर भी उम्र खोई जो ज़िक्र-ए-रक़ीब में
कैफ़ियत-ए-विसाल न पाई तमाम शब
थोड़ा सा मेरे हाल पे फ़रमा कर अल्तिफ़ात
करते रहे वो अपनी बड़ाई तमाम शब
वो आह तार ओ पूद हो जिस का हवा-ए-जुल्फ़
करती है अंबरी ओ सबाई तमाम शब
वो सुब्ह जलवा जलवा-गर-ए-बाग़ था जो रात
मुर्ग़-ए-सहर ने धूम मचाई तमाम शब
अफ़साने से बिगाड़ है अनबन है ख़्वाब से
है फ़िक्र-ए-वस्ल ओ ज़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब
जिस की शमीम-ए-जुल्फ में मैं ग़श हूँ ‘शेफ़्ता’
उस ने शमीम-ए-ज़ुल्फ़ सुँघाई तमाम शब