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थिएटर-2 / विष्णुचन्द्र शर्मा

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कल सूखे पहाड़ में
मैंने नहर बनाई थी।
अदबदा कर पर्वत से लूढ़के थे पत्थर।
पत्थर तराश कर
कल मैंने रची थी कला-प्रदर्शनी
आज लकड़ी काटकर
खिड़की बनाई थी मैंने
जड़ा था उसमें शीशा।
सूखे पहाड़
गर्दन उठाकर
या पीठ के बल लेटकर
देख रहे हैं
मेरा रचना-संसार।