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थूं अर म्हूं / दुष्यन्त जोशी
Kavita Kosh से
म्हूं दिन - रात
सोचतो रैवूं
कै
थूं म्हारै खातर
कदी कीं नीं कर्यौ
धूड़ है
थारै भायलैपणै में
पण म्हूं
आ' कदी नीं सोची
कै
थूं म्हारै खातर
भौत कुछ कर्यौ
थारो मिनखपणौ
याद क्यूं नीं रैवै मन्नै
स्यात
म्हारो सुवारथ
पसरज्यै म्हारै भीतर।