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थोड़ा है जिस क़दर मैं पढूँ ख़त हबीब का / लाला माधव राम 'जौहर'
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थोड़ा है जिस क़दर मैं पढूँ ख़त हबीब का
देखा है आज आँखों से लिक्खा नसीब का
हम मय-कशों ने नश्शे में ऐसे किए सवाल
दम बंद कर दिया सर-ए-मिंबर-ख़तीब का
सय्याद घार में हैं कहीं बाग़बाँ कहीं
सारा चमन है दुश्मन-ए-जाँ अंदलबी का
अपनी ज़बान से मुझे जो चाहे कह लें आप
बढ़ बढ़ के बोलना नहीं अच्छा रक़ीब का
आँखें सफ़ेद हो गईं जब इंतिज़ार में
उस वक़्त नामा-बर ने दिया ख़त हबीब का
क़िस्मत डुबोने लाई है दरिया-ए-इश्क़ में
ऐ ख़िज्र पार कीजिए बेड़ा ग़रीब का
वो बे-ख़ता हैं उन से शिकायत ही किस लिए
‘जौहर’ ये सब कुसुर है अपने नसीब का