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दक्षिण दिशा - 2 / बाल गंगाधर 'बागी'

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ज़माना कहाँ से कहाँ तक बदलता रहा
लेकिन हमारा घर दक्षिण में बनता रहा
मालूम नहीं वो आँधी में कैसे जीते थे
जब हवा का रुख उनकी तरफ मुड़ता था

दिशाओं पर कब्जा जमाकर बैठे रहे
हवा रोशनी मगर कभी न पकड़ सके
बरसात का तूफान जब भी आता था
हमारी बस्ती के पानी से वे न बच सके

हमारे घर में जब, सड़ा मांस पकता था
तुम्हारे गांव में, गंध उसका जाता था
गोबर में गेंहू से माँ रोटी जब बनाती थी
गुजरते हुए तुम्हारे, नाक में घुसता था

बताओ कैसे, उस गंध को सह पाते हो
हमारे परछाई से, भले ही भाग जाते हो
हवाआंे से कभी, बचके न निकल पाते हो
जब सांसों के बीच, अछूतों से उलझ जाते हो

तुम्हारे घर में जानवर रह रहा करते हैं
पर दलित गांव के बाहर बसा करते हैं
तुम्हारी नजर में, इंसान की अहमियत क्या
जो आज भी, अछूत हुआ करते हैं

हर जगह गंदगी वो साफ करते हैं
कभी झाड़ू टोकरी उठाया करते हैं
तुम जातिवाद की गंदगी में जीते हो
समाज इसी से दलदल में डाल देते हो

अब दक्षिणी हवा उत्तर की तरफ बहती है
पूरब पश्चिम चारों दिशाओं से कहती है
मैं तूफान बनकर चारों दिशाओं में जाऊंगी
सामंती सोच की दीवार हर गिराऊंगी