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दद्दा और राजा / चिन्तामणि जोशी
Kavita Kosh से
दद्दा गंवार नहीं था
गाँव में रहता था जरूर
जानता था उसके ही वोट से
बनता है राजा
उसके सुख की व्यवस्था के लिए
वह हमेशा देता आया था वोट
राजा के लिए
पहाड़ों पर
चौमास की गलती-धसकती पगडंडियों से फिसल कर
अषाढ़ की उफनती नदी में
आर-पार जाते तार पर
जान हथेली में ले कर
मीलों दूर बने पोलिंग बूथ पर
राजा भी दद्दा का हाथ
हाथ में लेता
और मुस्करा कर कह देता
नदी किनारे बिखरे
तमाम टुकड़ों में ही कहीं है
सुख का गर्म टुकड़ा
और दद्दा
एक-एक टुकड़े को गाल से छुआ कर
नदी में फेंकता रहता
वक्त गुजरा
दद्दा के सुख का अहसास
गुम गया
दद्दा डाल आया
अचानक हाथ आये गर्म टुकड़े को
दरिया में
अब शांत है
जैसे फूंक कर आया हो
गुजरी व्यथा की लाश।