भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दमामा बज रहा है / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दमामा बज रहा है, सुनो, आज
बदली के दिन आ गये
आँधी तूफान युग में
होगा आरम्भ कोई नूतन अध्याय,
नहीं तो क्यों इतना अपव्यय-
उतरा आता है निष्ठुर अन्याय ?
अन्याय को खींच लाते हैं अन्याय के भूत ही,
भविष्य के दूत ही।
कृपणता की बाढ़ का प्रबलि स्रोत
विलुप्त कर देता है मिट्टी निस्व निष्फल रूप को।
बहा लेजाता है जमे हुए मृत बालू के स्तर को
भरता है उससे वह विलुप्ति गहृर को;
सैकत की मिट्टी को देता अवकाश है
मरूभूमि को मार-मार उगाता वहाँ घास है।
दूब के खेत की पुरानी पुनरुक्तियाँ
अर्थहीन हो जाती है मूक सी।
भीतर जो मृत है, बाहर वह फिर भी तो मरता नहीं
जो अन्न घर में किया संचित है-
अपव्यय का तूफान उसे घेरे दौड़ा आता है,
भण्डार का द्वार तोड़ छप्पर उड़ा ले जाता है।
अपघात का धक्का आ पड़ता उनके कन्धे पर,
जगा देता है उनकी मज्जा में घुसकर वह।
सहसा अपमृत्यु का संकेत आयेगा
नई फसल बोने को लायेगा बीज नये खेत में।
शेष परीक्षा करायेगा दुदैंव-
जीर्ण युग के समय में क्या रहेगा, क्या जायेगा।
पालिश शुदा जीर्णता को पहचानना है आज ही,
दमामा बज उठा है, अब करो अपना काज ही।

31 मई, 1940