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दम्भपूर्ण अधिकार, स्वार्थ या चिर-अबाध वासना-विलास / गुलाब खंडेलवाल

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इंद्र--
दम्भपूर्ण अधिकार, स्वार्थ या चिर-अबाध वासना-विलास
काल बना देवत्व-हेतु, अनियंत्रित शासन सत्ता ही
हाय! सभी दोषों की जड़ थी, भूल गए हम भी हैं दास--
प्रकृति-शक्ति के और अमरता भी है अन्य-प्रदत्ता ही.
 
चली भाग्य से लेकिन किसकी! त्रिभुवन-भर्ता विष्णु स्वयं
भाग गए भीगी बिल्ली-से, कुंठित बुद्धि वृहस्पति भी
विफल वज्र में प्राण नहीं दे पाए बन करके अक्षम,
बलि के बाणों के सम्मुख रुक गयी दिवाकर की गति भी
 . . .
निज को दूर लिये जाता हूँ तुमसे, मात! क्षमा करना
स्वर्गों से सौगुनी बड़ी है और अधिक है प्यारी भी
मुझको मेरी प्रिय स्वतंत्रता, मत उदास घुट-घुट मरना
अब पतझड़ है तो आयेगी कल वसंत की बारी भी