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दम-ए-अख़ीर भी हम ने ज़बाँ से कुछ न कहा / शेर सिंह नाज़ 'देहलवी'

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दम-ए-अख़ीर भी हम ने ज़बाँ से कुछ न कहा
जहाँ से उठ गए अहल-ए-जहाँ से कुछ न कहा

चली तो कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ तो चलने दी
रूकी तो कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ से कुछ न कहा

ख़ता-ए-इश्क़ की इतनी सज़ा ही काफ़ी थी
बदल के रह गए तेवर ज़बाँ से कुछ न कहा

बला से ख़ाक हुआ जल के आशियाँ अपना
तड़प के रह गए बर्क़-ए-तपाँ से कुछ न कहा

गिला किया न कभी उन से बे-वफ़ाई का
ज़बाँ थी लाख दहन में ज़बाँ से कुछ न कहा

ख़ुशी से रंज सहे ‘नाज़’ उम्र भर हम ने
ख़ुदा-गवाह कभी आसमाँ से कुछ न कहा