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दयार-ए-संग में रह कर भी शीशा-गर था मैं / जमुना प्रसाद 'राही'

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दयार-ए-संग में रह कर भी शीशा-गर था मैं
ज़माना चीख़ रहा था के बे-ख़बर था मैं

लगी थी आँख तो मरयम की गोद का था गुमाँ
खुली जब आँख तो देखा सलीब पर था मैं

अमाँ किसे थे मेरे साए में जो रूकता कोई
ख़ुद अपनी आग में जलता हुआ शजर था मैं

तमाम उम्र न लड़ने का ग़म रहा मुझ को
अजब महाज़ पे हारा हुआ ज़फर था मैं

हवा-ए-वक़्त ने पत्थर बना दिया वरना
लचकती शाख़ से टूटा हुआ समर था मैं

तमाम शहर में जंगल की आग हो जैसे
हवा के दोष पे उड़ती हुई ख़बर था मैं