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दया / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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जाके जीय दया बसी, ता घर बसो दयाल।
धरनी जहाँ दया नहीं, तहाँ बसेरो काल॥1॥

दाया दुर्लभ जगत में, पावै विरला कोय।
दया दयालु बिना कहीं, धरनी दया न होय॥2॥

यज्ञ, योग, तप, तीर्थ व्रत, सुमिरत आठो याम।
धरनी बिनु हृदया दया, कछु नहि आवै काम॥3॥

धरनी सो नर धन्य है, पर पीडा जिय व्याय।
ताके दर्शन देखते, भस्म होत जग पाप॥4॥

काया-माया जेहि बढी, दया बढ़ी न जाहि।
निष्फल ताको जीवनो, धरनी गनै न ताहि॥5॥