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दरख़्तों का वहीं पे क़ाफ़िला ये रुकने वाला है / सूरज राय 'सूरज'

दरख़्तों का वहीं पर क़ाफ़िला ये रुकने वाला है।
कुल्हाड़ी का सुना है जिस जगह पर बोलबाला है॥

अंधेरे क़ब्र में तो डस रहे हैं ऐ अज़ल मुझको
मुझे तू कह के लाई थी उजाला ही उजाला है॥

किसी इक सरफिरि-सी जुस्तजू ने कर दिया पागल
समन्दर ढूंढने मैंने सुराही तक खंगाला है॥

मेरा किरदार मत लिखना गुलाबों की कहानी में
बड़ी मुश्किल से इस दिल में फंसा काँटा निकाला है॥

खड़ा है फिर खरीदारे-अना कुछ रोटियाँ लेकर
अगरचे भूख़ ने सौ बार दरवाज़े से टाला है॥

उजाले की हवस में रात को तुम दिन समझ बैठे
तुम्हे जो लग रहा "सूरज" , मेरे पाँव का छाला है॥