भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दरवाजे पर उगे नीम ने / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
गगन मापने पर घन से टकराने का डर
मिट्टी से जुड़ने का तो आनन्द और है
मेरे गीतों को नक्षत्रों तक पहुँचा दे
धरती से उपजा-निपजा वह छंह और है
जीवन की बगीया फूलों से महकी भी है
तो निदाघ में टहनी-टहनी दहकी भी है
आधी रात कुररियों ने चीत्कार किया है
नव वसन्त में मन-विहंगिनी चहकी भी है
दरवाजे पर उगे नीम ने कडुवाहट दी
आँगन की तुलसी का पर मकरंद और है
यह बबूल लग गया आम्र-दु्रम के धोखे में
काँटों से बिंध गया बदन भी गदराया है
जीवन की इस तपती हुई दोपहर में भी
मन का भरम मिटाने का कुछ तो छाया है
साँसों की सरगम, प्राणों की अमुखर वाणी
शान्ति कहाँ ? दोनों का शाश्वत द्वंद और है