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दरिया और तड़पती जमीन / अमरजीत कौंके
Kavita Kosh से
दरिया उस मिट्टी में
व्यर्थ बहता रहा
जहाँ उसकी जरूरत नहीं थी
पृथ्वी उसे अपने जिस्म से
उतार-उतार कर पेंफकती
और दूर बँजर जमीनें
उसकी एक छुअन के लिये तड़पतीं
पृथ्वी ने लेकिन दरिया को
किनारों में सड़ने की सौगंध् दी
उसके पैरों के आगे खींची
लक्ष्मण रेखायें
और कहा-
इनके पार नहीं बहना
दरिया अपनी नैतिकता के
दायरों में घिरा
धीरे धीरे
दरिया से तालाब बन रहा
और दूर बँजर जमीनें
उसकी एक छुअन के लिये
तड़पतीं।