भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दरिया से न समंदर छीन / राजेन्द्र स्वर्णकार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दरिया से न समंदर छीन
मुझसे मत मेरा घर छीन

क्यों उड़ने की दावत दी
ले तो लिये पहले पर छीन

मंज़िल मैं ख़ुद पा लूंगा
राह न मेरी रहबर छीन

मिल लूंगा उससे , लेकिन
पहले उससे पत्त्थर छीन

देख ! हक़ीक़त बोलेगी
हाथों से मत संगजर छीन

लूट मुझे ; मुझसे मेरा
जैसा है न सुख़नवर छीन

बोल लुटेरे ! ताक़त है ?
मुझसे मेरा मुक़द्दर छीन

मालिक ! नज़र नज़र से अब
ख़ौफ़ भरे सब मंज़र छीन

राजेन्द्र हौवा तो नहीं
लोगों के मन से डर छीन