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दर्ज़ी की कविता / पूर्णिमा वर्मन

Kavita Kosh से
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एक दर्ज़ी कविता लिखता है

लोग हँसते हैं ठठा कर

अनपढ़ों के देश में

दर्ज़ी कविता लिखता है ?

लोग नहीं जानते

दर्ज़ी पढ़ सकता है

लिख सकता है

सोच सकता है

महसूस कर सकता है ।


एक कवि जब कविता लिखता है

लोग भूल जाते हैं

कवि को भी चाहिए

दो वक्त रोटी

एक छत

कवि का भी एक बच्चा है

जिसे वह ज़िन्दा देखना चाहता है

कम से कम अपने मरने तक

कवि तब कलम छोड़ कर

कैंची पकड़ता है ।


दूकान पर बड़बड़ाते हैं

अनपढ़ ग्राहक

सरकारी पैसा हज़म किये हुए अफ़सर

गरीबों का ख़ून चूसकर बने नवधनिक

कवि की पैनी कलम का घमंड

चिन्दी-चिन्दी कतरन बनकर

उड़ता है दुकान से चौराहे तक

लोग कहते हैं

दुकान चल निकली ।


कवि जहाँ का तहाँ

शब्द कभी धागों की तरह उलझते हैं--

धागे कभी शब्दों की तरह

रात बारह बजे के बाद

जब दर्ज़ी सो जाता है

कवि जागता है सुगबुगाता हुआ

कलम ढूँढने को

जो कान में खुसी चुपचाप

ठंडी पड़ी उँगलियों में

ऊबड़-खाबड़ कुछ लिखकर

सुबह सात बजे

दर्ज़ी के उठने से पहले

दुबक जाती है कान के ऊपर

पैनी कलम की अस्मिता

चंद मिनटों की हो जाती है ।


कैंची चलती है बारह घंटे लगातार

पाँच सौ का परिधान तैयार करती

जिसका मूल्य सिर्फ़ पैसा है

चंद रुपयों के लिये

लगातार खटती हुई ।


कलम चंद मिनटों में हज़ार की

बात करती है

हज़ार...जो कवि के कभी नहीं होते

कविता नमक की थैली में

मुँह छिपाये बिकती है

चुपचाप मुफ़्त ।


जब दर्ज़ी कविता लिखता है

लोग हँसते हैं ठठा कर

पर वे याद रखें

कि दर्ज़ी जब कविता लिखता है

तो

एक छत

दो रोटी

और मुट्ठी भर सम्मान के लिये

मुँह छिपाए रोता नहीं ।

दर्ज़ी कलम की धार तेज़ करता है

कैंची से ।