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दर्ज़ करो कि तुमको क़ातिल कहने वाले ज़िंदा हैं / अशोक कुमार पाण्डेय

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यह नाम है मेरा - यहाँ वल्दियत
यह घर का पता, उम्र, तस्वीर...
बताओ और क्या चाहिए?
लो...यह मेरा लिखा
यह कहा-सुना ..यह आँसू,गुस्सा,पीड़ा...
 
यह प्रेम है मेरा
यह घृणा अथाह जिसके हर मोड़ पर तुम्हारा नाम लिखा है
यह हड्डी है रीढ़ की जिसे तुमने विलुप्त प्रजाति घोषित कर दिया है
तुम्हारे अलंकरणों की ओर पीठ किये यह कविता है
तुम्हारे बाज़ार को मुह बिराती कलम
 
फैलने के समय में तनी हुई मुट्ठियाँ हैं ये
बुझने के समय में जलती हुई आँखें
चीखते हुए होठ इस महाचुप्पे समय में
 
दर्ज़ करो- लो दर्ज़ करो
दर्ज़ कर लो यह सब हमारी उस मुख्तलिफ़ पहचान में
दर्ज़ करो यह सब आज के रोज़नामचे में
 
दर्ज़ करो कि ज़िन्दानों में हंसने वाले जिंदा हैं
दर्ज़ करो कि तुमको कातिल कहने वाले जिंदा हैं
दर्ज़ करो कि आग अभी भी बुझी नहीं है
दर्ज़ करो कि अगन-पाँख के सपने अब भी जिंदा हैं
 
दर्ज़ करो कि अब तक ख़तरा टला नहीं है
बहुत चला है ज़ोर तुम्हारा, सब पर लेकिन चला नहीं है
 दर्ज़ करो कि ख़ामोशी ए खल्क दरकने वाली है
आदत है इस दुनिया की, वह फिर से बदलने वाली है!