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दर्द-ओ-ग़म का घना अँधेरा था / शीन काफ़ निज़ाम
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दर्दो ग़म का घना अँधेरा था
पर नज़र में किसी का चेहरा था
उन की ताबीर और क्या होती
ख़्वाब जो भी था वो अधूरा था
आँखें जैसे ग़ज़ल के दो मिसरे
इक सरापा किताब जैसा था
गाँव के घर तो छोटे थे लेकिन
चाँद छत से दिखाई देता था
उन के चेहरे कभी न यूँ भीगे
कोई फूलों से मिल के रोया था
छोड़ कर वो मुझे कहाँ जाता
वो भी मेरी तरह अकेला था
कोई आवाज़ आ रही थी 'निज़ाम'
मुड़ के देखा तो अपना साया था