Last modified on 12 मई 2020, at 22:52

दर्द का रंग हरा होता है / नीरज नीर

दर्द का रंग हरा होता है
वर्षा ऋतु में धरा गुजरती है
प्रसव पीड़ा से
डूबती है दर्द में
हो जाती है अंतर्मुखी
आसमान का नीलापन
प्रतिबिंबित नहीं होता
उसकी देह पर
पीड़ा कि अधिकता में
पृथ्वी रंग जाती है हरे रंग में
जिसकी निष्पत्ति होती है
सृजन में।

जब वृक्ष उखड़ता है
तो थोड़ी पृथ्वी भी उखड़ जाती है
उसके साथ
पृथ्वी वृक्ष को छोड़ना नहीं चाहती है
वृक्ष पृथ्वी के दर्द का प्रतिरूपण है।

बिना दर्द से गुजरे
दर्द को कहना
हरा को लाल कहने जैसा है।

कवि तुम्हें दर्द भोगना होगा
पृथ्वी बनकर
ताकि तुम कर सको
सृजन।

हरे रंग की पहचान मुश्किल है
वर्णांधों के लिए
अक्सर हरा गडमगड हो जाता है
लाल के साथ।