भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दर्द का रिश्ता हमारे दरम्याँ बाक़ी रहा / सिया सचदेव
Kavita Kosh से
दर्द का रिश्ता हमारे दरम्याँ बाक़ी रहा
ज़िंदगी भर बस यहीं इक इम्तेहाँ बाक़ी रहा
ज़ेहन ओ दिल और रुह पर हैँ जख़्म खाये इस क़दर
बिजलियाँ गिरती रही पर आशियाँ बाक़ी रहा
उस यक़ीं के टूटने के बाद फिर कुछ भी न था
अजनबी थे सिर्फ़ रिश्ते का गुमाँ बाक़ी रहा
ज़िंदा रहने का तो वादा कर लिया तुझसे मगर
जिस्म में अब जान जैसा कुछ कहाँ बाक़ी रहा
ला ताल्लुक़ सी निग़ाहें देखती हैँ हादसे
हममें अब एहसास होना भी कहाँ बाक़ी रहा
एक मुजरिम की तरह घर की अदालत में रही
सब गवाही दे चुके,मेरा बयाँ बाक़ी रहा
ख़ाक मुझको कर दिया सदमों ने अपनी आँच से
मैं तो कब की जल चुकी हूँ, बस धुवाँ बाक़ी रहा