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दर्द ने जब कभी रुलाया है / ब्रह्मजीत गौतम
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दर्द ने जब कभी रुलाया है
हौसला और भी बढ़ाया है
क्या करेंगी सियाह रातें ये
नूर हमने ख़ुदा से पाया है
बीज को कौन है मिटा पाया
दफ़्न होकर भी लहलहाया है
मंज़िलें दूर ही रहीं उससे
जिसने मेह्¬नत से जी चुराया है
वक़्त वह लौटकर नहीं आता
वक़्त इक बार जो गँवाया है
हम बहारों के शौक क्या जानें
हमने पतझर से दिल लगाया है
दीप वह हारकर भी ‘जीत’ गया
जिसने तूफ़ान को छकाया है