भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दर्द / उमा अर्पिता
Kavita Kosh से
मुस्कराहट
किसी भोली/मासूम बच्ची-सी
न जाने भीड़ में
अँगुली छुड़ाकर
कहाँ खो गई ...!
विश्वास की मूरत
पग-पग पर
ठोकरें खाकर टूटती रही/
टूटती ही चली गई
क्या खोया, क्या पाया
अब तो कुछ भी याद नहीं!
ऐसे में भी
तब
बिखरता चला जाता है दर्द,
जब मेरी भावनाओं की कब्र पर
न जाने कौन
दर्द भरे स्वर में
मर्सिया गुनगुनाता है--!