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दर्द / कल्पना लालजी
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दर्द की कोई सीमा नहीं होती
रोके रुकता नहीं उमड़ा चला आता है
रूप धारण कर आंसुओं का यह
रिश्ता और बहे जाता है
अनेकानेक रूप हैं इसके
पहचान इसकी होती नहीं
वेष बदल दबे पैरों
दाखिला दिलों में पा जाता है
हम और तुम बौनों की तरह
कर नहीं पाते हैं कुछ
विष भरे घूंटों की कसक
थामे हुए मुट्ठी में
तमाशबीनों में खड़े
बस यूंही जिए जाते हैं
राह इससे न टकराए
सामना कहीं न हो जाये
कोशिशें की हजारों लेकिन
बस देखते ही रह जाते हैं
मज़बूत इरादों की बनाकर सीढ़ी
आसमानी बुलंदियां छूकर
काटों की पकड़ कर राहें
सीधा ही बढ़ा आता है
चाहे जितना पुकार कर देखो
आयेगा न कोई साथ तेरे
दर्द अपने हिस्से का यहाँ
ढोकर ही जिया जाता है